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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 215 कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ बिलकुल (कदापि) भासित नहीं होता। (जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब होने पर भी ज्ञानी दर्पण में कोई अन्य पदार्थ जो कि प्रतिबिम्ब है वह उस में घुस गया हुआ नहीं जानता यानि ज्ञानी उसे दर्पण का ही प्रतिबिम्ब जानता है यानि वहाँ प्रतिबिम्ब को गौण करके दर्पण को दर्पण रूप ही अनुभव करता है, उसी प्रकार) ज्ञान, ज्ञेय को जानता है (यानि ज्ञान का स्व-पर प्रकाशकपना है, 'आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानती' ऐसा स्वरूप नहीं) वह तो इस ज्ञान के शुद्ध स्वभाव का उदय है, ऐसा है। (यानि ज्ञान स्वभाव से ही स्व-पर को जानती है ऐसा ही है) तो फिर लोग (अज्ञानी = मिथ्या दृष्टि लोग) ज्ञान को अन्य द्रव्य के साथ स्पर्श होने की मान्यता से व्याकुल बुद्धिवाले होते हए (अर्थात् अज्ञानी = मिथ्यात्वी ज्ञान पर को जाने तो ज्ञान को पर के साथ स्पर्श हो गया मानकर आकुल बुद्धिवाले होते हुए) तत्त्व से (शुद्ध स्वरूप से) किस लिये च्युत होते हैं?' ऐसा सम्यक् स्वरूप है स्व-पर प्रकाशक का, जिसे अन्यथा समझने से मिथ्यात्व का दोष आता है जो कि उसे अनन्त संसार का कारण होता है। श्लोक २२२ :- ‘पूर्ण (यानि एक भाग शुद्ध और दूसरा भाग अशुद्ध ऐसा नहीं परन्तु जो प्रमाण के विषय रूप पूर्ण आत्मा है, वही पूर्ण आत्मा द्रव्य दृष्टि से पूर्ण शुद्ध रूप प्राप्त होती है), एक (यानि उसमें कोई भाग नहीं अथवा भेद नहीं ऐसा), अच्युत और शुद्ध (यानि प्रत्येक समय वैसा का वैसा शुद्ध भाव से परिणमता, प्रगट होता है। यानि विकार रहित होता है।) ऐसा ज्ञान जिसकी महिमा है (ज्ञान वह आत्मा का लक्षण होने से, आत्मा मात्र ज्ञान से ही ग्राह्य है और वही उसकी महिमा है) ऐसा यह ज्ञायक आत्मा (यानि ज्ञान सामान्य रूप परम पारिणामिक भाव जो कि सर्व गुणों के यानि द्रव्य के सहज परिणमन रूप शुद्धात्मा है वह – जाननेवाला है) वह (असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थों से (परपदार्थों को जानने से) ज़रा भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, जैसे दीपक प्रकाश्य पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार (यानि पर को जानने से आत्मा का ज़रा भी अनर्थ नहीं होता और दूसरा ज्ञान सामान्य भाव पर को जानने रूप क्षयोपशम भाव रूप परिणमता है तथापि वह अपना ज्ञान सामान्यपना यानि परम पारिणामिक भावपना नहीं छोड़ती यानि वह कोई विक्रिया को प्राप्त नहीं होती यानि वह परम अकर्ता ही रहती है, दर्पण के दृष्टान्त की भाँति प्रकाश्य पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होती)। ऐसी वस्तु स्थिति के ज्ञान से रहित जिनकी बुद्धि है, ऐसे अज्ञानी जीव (यानि जिन्हें यह बात नहीं ऊँचती कि जो भाव विशेष में पर को जानता है वही भाव सामान्य रूप से परम पारिणामिक भाव रूप - सहज परिणमन रूप - शुद्धात्मा रूप - परम अकर्ता भाव है और वह पर को जानने से ज़रा भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता; ऐसे जीवों को अज्ञानी जीव मानना, ऐसे अज्ञानी जीव) अपनी सहज उदासीनता
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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