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________________ 212 सम्यग्दर्शन की विधि ही है, जिसका स्वरूप सब विकल्प रहित ऐसा निर्विकल्प है, इसलिये यहाँ बतलाये सब विकल्पयुक्त भावों को विकल्प अपेक्षा से विष कुम्भ कहा है। क्योंकि जो जीव यहाँ बतलाये हए सर्व विकल्पयुक्त भावों में ही रहता है और धर्म हआ मानता है तो वह उसके लिये विष कुम्भ समान हैं क्योंकि वह स्वयं को ये सब कार्य करके कृतकृत्य मानता है और शुद्धात्मा का लक्ष्य भी नहीं करता तो ये समस्त भाव उसे विष कुम्भ समान हैं अर्थात् यहाँ बतलाये हए सभी, अपेक्षा से और निर्विकल्प आत्म स्वरूप में ही स्थिरता कराने के लिये और उसे ही परम धर्म स्थापित करने के लिये इन सब भावों को विष कुम्भ कहा है; किसी ने इसे अन्यथा अर्थात एकान्त से ग्रहण नहीं करना)। अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्दा, और अशुद्धि - ये अमृत कुम्भ हैं (यानि ऊपर के सब भावों के आगे यहाँ अ लगाकर सब विकल्पात्मक भावों का निषेध किया है यानि निश्चय नय निषेध रूप होने से और शुद्धात्मा विकल्प रहित यानि निर्विकल्प स्वभाव की होने से जो सम्यग्दर्शन का विषय है और बाद में ध्यान का भी विषय है यानि स्थिरता करने का विषय है उस में ही रहना, वह अमृत कुम्भ समान है यानि मुक्ति का कारण है इसलिये वह अमृत कुम्भ है ऐसा बतलाया है)।' यहाँ किसी को छल ग्रहण नहीं करना यानि विपरीत समझ ग्रहण नहीं करना। जिस अपेक्षा से उपर्युक्त भावों को विष कुम्भ कहा है, वह समझे बिना एकान्त से उन्हें विष रूप समझकर उन्हें छोड़ नहीं देना और स्वच्छन्द से राग-द्वेष रूप नहीं परिणमना क्योंकि वह तो अभव्यपने अथवा दूर भव्यपने की ही निशानी है यानि वैसी आत्मा को अनन्त संसार समझना। जैसे कि समाधितन्त्र गाथा ८६ में बतलाया है कि :- “हिंसादि पाँच अव्रतों में अनुरक्त मनुष्य को अहिंसादि व्रतों का धारण कर के अव्रत अवस्था में होते विकल्पों का नाश करना तथा अहिंसादिक व्रतों के धारक को ज्ञान स्वभाव में लीन होकर व्रतावस्था में होते विकल्पों का नाश करना और फिर अरिहन्त अवस्था में केवल ज्ञान से युक्त होकर स्वयं ही परमात्मा होनासिद्ध स्वरूप को प्राप्त करना।' यानि अशुभ भाव तो नहीं ही, और शुद्ध भाव का मूल्य चुकाकर शुभ भाव भी नहीं। जिन सिद्धान्त का प्रत्येक कथन सापेक्ष ही होता है और यदि उसे कोई निरपेक्ष समझे - माने - ग्रहण करे तो वह उसके अनन्त संसार का कारण होता है, इसलिये वैसा करने योग्य नहीं नहीं नहीं ही। ९. सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार :- यह अधिकार समयसार शास्त्र का हार्द है यानि इस शास्त्र का उद्देश्य है सम्यग्दर्शन प्राप्त कराना और फिर सिद्धत्व दिलाना यानि सम्यग्दर्शन प्राप्त
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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