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________________ पूर्वभूमिका और कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २९७ में भी बतलाया है कि 'जैसे महान समुद्र में गिरा हुआ रत्न फिर से प्राप्त होना दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मनुष्यपना प्राप्त होना दुर्लभ है - ऐसा निश्चय करके, हे भव्य जीवो! इस मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ो ऐसा श्रीगुरुओं का उपदेश है।' इसलिये यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म मात्र शारीरिक-इन्द्रियजनित सुख और उनकी प्राप्ति के लिये खर्च करने योग्य नहीं है। इसके एक भी पल को व्यर्थ न गँवा कर, मात्र और मात्र शीघ्रता से शाश्वत् सुख ऐसे आत्मिक सुख की (सम्यग्दर्शन की) प्राप्ति के लिये लगाना ही योग्य है। यदि यह भव सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना गया तो फिर अनन्त काल तक ऐसा सम्यग्दर्शन पाने के योग्य भव प्राप्त होना दुर्लभ ही है इसलिये सभी जनों से हमारा अनुरोध है कि आपको अपना वर्तमान पूर्ण जीवन सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये ही लगाना चाहिये इसीलिये हम प्रस्तुत पुस्तक में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विधि/रीति और उसके लिये जिस विषय का मनन-चिन्तन करके उसी में एकत्व करने योग्य है ऐसे ‘सम्यग्दर्शन (दृष्टि) का विषय' का विवेचन करेंगे।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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