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________________ 158 सम्यग्दर्शन की विधि 'मैंपन' नहीं करके अर्थात् उन्हें गौण करते ही उनसे रहित शुद्धात्मा प्राप्त होता है, ऐसे) आत्मा को (अर्थात् शुद्ध आत्मा को) जो ध्याता है उस श्रमण को (परम) आलोचना समझना चाहिये।' श्लोक १५२ :- 'घोर संसार के मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत को सदा निकाल-निकालकर (अर्थात् समयसार गाथा ६ अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं ऐसा एक ज्ञायक भाव रूप और दूसरा, यहाँ पुण्य और पाप, दोनों को घोर संसार का मूल कहा है, उसके विषय में हमने पूर्व में बतलाये अनुसार समझना अर्थात् दोनों आत्मा को बन्धन रूप होने से संसार से मुक्ति के लिये इच्छनीय नहीं है, तथापि किसी ने ऐसा नहीं समझना कि पाप और पुण्य, ये दोनों हेय होने से अपने को पाप करने की छूट मिली है। ऐसा समझनेवाला वह नियम से अनन्त संसारी ही है परन्तु पाप का विचार भी नहीं करके, मात्र आत्म लक्ष्य से सुकृत करने योग्य है और वह शुभ भाव भी शुद्ध भाव से विरुद्ध भाव होने से, शुद्ध भाव में 'मैंपन' करने से अथवा मात्र शुद्ध भाव के लक्ष्य से भले आप नियम से शुभ में ही रहें परन्तु उस पर आदर भाव से नहीं। आदर भाव मात्र शुद्ध भाव पर ही हो और रहना भी है शुद्ध भाव में ही, परन्तु यदि आप शुद्ध भाव से स्खलित हो अथवा शुद्ध भाव की प्राप्ति न हुई हो तो शुद्ध भाव के लक्ष्य से रहना, नियम से शुभ में ही। अशुभ भाव की तो परछाई भी लेने योग्य नहीं है, इसलिये यहाँ किसी को छल ग्रहण करके शुभ भाव छोड़कर अशुभ का आचरण नहीं करना। तीसरा यहाँ दृष्टि के विषय रूप शुद्धात्मा इष्ट है कि जिसमें सुकृत और दुष्कृत रूप विभाव भाव को सदा आलोच-आलोचकर अर्थात् अत्यन्त गौण करके) मैं निरूपाधिक (स्वाभाविक) गुणवाले शुद्धात्मा का आत्मा से अवलम्बन लेता हूँ (अर्थात् शुद्धात्मा में ही रहने का प्रयत्न करता हूँ) पश्चात् (अर्थात् उससे ही) द्रव्य कर्म रूप समस्त प्रकृति को नाश प्राप्त कराकर (अर्थात् घाति कर्म का नाश करके केवल ज्ञान-केवल दर्शन रूप) सहज विलसती ज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करूँगा।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव के ध्यान के विषय रूप शुद्धात्मा ही है। श्लोक १५५ :- 'जिसने ज्ञान ज्योति द्वारा (अर्थात् ज्ञान मात्र भाव के अवलम्बन से) पाप तिमिर के पुंज का नाश किया है (अर्थात् उसका 'मैंपन' ज्ञान मात्र भाव = परम पारिणामिक भाव में ही होने से सर्व पापों के उदय रूप औदायिक भाव को अत्यन्त गौण किया है) और जो पुराण (सनातन अर्थात् त्रिकाली शुद्ध) है ऐसा आत्मा परम संयमियों के चित्त कमल में (भाव मन में) स्पष्ट है, वह आत्मा संसारी जीवों के वचन-मनोमार्ग से अतिक्रान्त है (वचन और मन से स्पष्ट कर सकने अथवा व्यक्त कर सकनेयोग्य नहीं है) यह निकट परम पुरुष में (अर्थात् निकट में ही मोक्ष प्राप्त करनेयोग्य पुरुष में) विधि क्या और निषेध क्या ?'
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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