SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 157 सम्यग्दर्शन रूप दीप प्रगटाकर पाप तिमिर को नष्ट किया है, वही शुद्धात्मा) सद्पुरुषों के (ज्ञानी के) हृदयकमल रूपी घर में निश्चय रूप से संस्थित है (भली प्रकार स्थिरता प्राप्त है)।' ___ गाथा १०२ : अन्वयार्थ :- ‘ज्ञानदर्शनलक्षणवाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य हैं।' ये गाथा भेद ज्ञान की गाथा है, इसमें सम्यग्दर्शन के लिये भेद ज्ञान किस प्रकार करना यह बतलाया है कि जो ‘देखने-जाननेवाला आत्मा है, वह मैं' अन्य सर्व भाव (ज्ञेय), उन्हें गौण करने के भाव होने से ही वे भाव बाह्य कहे हैं क्योंकि उनसे ही भेद ज्ञान करना है। श्लोक १४८ :- ‘तत्त्व में निष्णात बुद्धिवाले जीव के हृदयकमल रूप अभ्यन्तर में (भाव मन में) जो सुस्थित (भले प्रकार स्थिरता प्राप्त) है, वह सहज तत्त्व (परम पारिणामिक भाव रूप सहज परिणामी शुद्ध आत्मा) जयवन्त है (वही सर्वस्व है)। उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है (अर्थात् दर्शन मोह का उपशम, क्षयोपशम, अथवा तो क्षय किया है) और वह (सहज तेज) (सम्यग्दर्शन का विषय) निज रस के फैलाव से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाश मात्र है।' श्लोक १४९ :- ‘और जो (सहज तत्त्व - शुद्धात्मा) अखण्डित है (अर्थात् आत्मा में कोई भाग शुद्ध और कोई भाग अशुद्ध, ऐसा नहीं है, पूर्ण आत्मा - अखण्ड आत्मा ही द्रव्य दृष्टि से शुद्धात्मा रूप ज्ञात होता है), शाश्वत है (अर्थात् तीनों काल ऐसा का ऐसा उपजता है = परिणमता है), सकल दोष से दूर है (अर्थात् सकल दोष से भेद ज्ञान किया होने से वह शुद्धात्मा सकल-दोष से दूर है), उत्कृष्ट है (अर्थात् सिद्ध सदृश भाव है), भव सागर में डूबे हुए जीव समूह को (अर्थात् सभी संसारी जीवों को) नौका समान है (अर्थात् मुक्ति का कारण है अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय है) और प्रबल संकटों के समूह रूपी दावानल (अर्थात् किसी भी प्रकार के उपसर्गरूप संकटों में स्वयं शान्त रहने) के लिये जल समान है (अर्थात् शुद्धात्मा का अवलम्बन लेते ही संकट गौण हो जाते हैं, पर हो जाते हैं), उस सहज तत्त्व को मैं प्रमोद से सतत नमस्कार करता हूँ।' अर्थात् प्रमोद से सतत भाता हूँ, उसका ही ध्यान करता हूँ। गाथा १०७ : अन्वयार्थ :- ‘नोकर्म और कर्म से रहित (अर्थात् प्रथम, पुद्गल से भेद ज्ञान किया, जो कि आत्मा से प्रगट भिन्न है) तथा विभावगुण पर्यायों से व्यतिरिक्त (अर्थात् दूसरा, आत्मा जो कर्मों के निमित्त से विभाव भाव रूप अर्थात् औदयिक भाव रूप परिणमता है, उससे भेद ज्ञान किया अर्थात् वे भाव होते तो है आत्मा में ही - मुझ में ही, परन्तु वे भाव मेरा स्वरूप नहीं होने से उनमें
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy