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प्रवचनसार - अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
हुआ दिखाया है) - ऐसा जो यह उद्धत मोह की लक्ष्मी को (ऋद्धि को, शोभा को) लूट लेनेवाला शुद्ध नय (शुद्धोपयोग, यानि सम्यग्दर्शन = स्वात्मानुभूति) उसने उत्कट विवेक द्वारा तत्त्व को (आत्म स्वरूप) को विविक्त (प्रगट) किया है ।' यानि सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है।
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गाथा २४० : टीका :- ‘जो पुरुष अनेकान्त केतन (अनेकान्तयुक्त) आगम ज्ञान के बल से, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिश्रित होता हुआ विशद एक ज्ञान (ज्ञेयाकार यानि ज्ञानाकार जो कि ज्ञान के ही बने हुए होने से उन आकारों को गौण करते ही ज्ञान सामान्य मात्र ‘शुद्धात्मा’ जो कि सम्यग्दर्शन का विषय है, वही प्राप्त होता है ।) जिसका आकार है, ऐसी आत्मा को (‘शुद्धात्मा' को) श्रद्धान और अनुभव करता हुआ (यानि श्रद्धा और अनुभव का विषय एक ही है), आत्मा में ही नित्य निश्चल वृत्ति को इच्छता हुआ....' यहाँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की विधि बतलायी है।