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________________ 138 सम्यग्दर्शन की विधि २८ प्रवचनसार-अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय गाथा ३३ : टीका :- ‘जैसे भगवान, युगपत् परिणमते समस्त चैतन्य विशेषोंवाले केवल ज्ञान द्वारा, अनादिनिधन-निष्कारण-असाधारण-स्वसंवेद्यमान-चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा चेतक स्वभाव द्वारा एकपना होने से जो केवल (अकेला, अमिश्रित, शुद्ध, अखण्ड) है...' ऐसा है सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) और वह चैतन्य सामान्य होने से यानि उसमें सर्व विशेष भावों का अभाव होने से ही शुद्धात्मा को = दृष्टि के विषय को अलिंगग्राह्य कहा है। इसी अपेक्षा से अलिंगग्रहण के बोल समझना आवश्यक है, अन्यथा नहीं। एकान्त से नहीं क्योंकि एकान्त तो अनन्त परावर्तन का कारण होने में सक्षम है। गाथा ८० : भावार्थ :- “अरिहन्त भगवान और अपनी आत्मा निश्चय से समान हैं; और अरिहन्त भगवान मोह-राग-द्वेष रहित होने के कारण उनका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है, इसलिये यदि जीव द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से उन (अरिहन्त भगवान के) स्वरूप को मन द्वारा प्रथम समझ ले तो ‘यह जो 'आत्मा' 'आत्मा' ऐसा एकरूप (कथंचित् सदृश) त्रैकालिक प्रवाह वह द्रव्य है, उसका जो एक रूप रहनेवाला चैतन्य रूप विशेषण वह गुण है, और उस प्रवाह में जो क्षणवर्ती व्यतिरेक है, वह पर्याय है।' ऐसे अपनी आत्मा भी द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से उसे मन द्वारा ख़याल में आता है। इस प्रकार त्रैकालिक निज आत्मा को मन द्वारा ख़याल में लेकर पश्चात्-जैसे मोतियों को और सफ़ेदी को हार में ही अन्तर्गत करके केवल हार को जानने में आता है, वैसे-आत्म पर्यायों को और चैतन्य गुण को आत्मा में ही अन्तरगर्भित करके (सम्यग्दर्शन का विषय) केवल आत्मा को जानने पर परिणामी-परिणाम-परिणति के भेद का विकल्प नष्ट होता जाने से जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को (शुद्धोपयोग) प्राप्त करता है और इससे मोह (दर्शन मोह) निराश्रय होता हुआ विनाश को प्राप्त होता है। यदि ऐसा है, तो मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने का उपाय मैंने प्राप्त किया है"ऐसा कहा, यानि सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। श्लोक ७ :- “जिसने अन्य द्रव्य से भिन्नता द्वारा (प्रथम भेद ज्ञान) आत्मा को एक ओर हटा लिया है (आत्मा को परद्रव्य से अलग दिखाया है) तथा जिसने समस्त विशेषों के समूह को सामान्य में मग्न किया है (द्वितीय भेद ज्ञान) (यानि समस्त पर्यायों को द्रव्य के भीतर डूबा
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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