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सम्यग्दर्शन की विधि
२७ स्वपर विषय का उपयोग करनेवाला भी आत्म ज्ञानी होता है
पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोकश्लोक ८४५ : अन्वयार्थ :- ‘उस क्षायोपशमिक ज्ञान का विकल्पपना (परपदार्थ को जानने रूप उपयोग) ज्ञान चेतना का बाधक कारण नहीं हो सकता (यानि यदि कोई ऐसा मानते हों कि जीव पर को जानता है, ऐसा मानने से मिथ्यात्वी हो जाते हैं अथवा जीव पर को जानता है ऐसा मानने से सम्यग्दर्शन को बाधा होती है, सम्यग्दर्शन नहीं होता। तो यहाँ समझाते हैं कि ज्ञान का पर को जानना, वह सम्यग्दर्शन के लिये बाधक कारण नहीं है) क्योंकि जिस गुण की जो पर्याय होती है, वह कथंचित् तद्रूप (उस गुण रूप) ही होती है इसलिये क्षायोपशमिक ज्ञान का विकल्प ज्ञान चेतना रूप शुद्ध ज्ञान का शत्रु नहीं है।'
इसलिये जब ज्ञान पर को जानता है तब वह ज्ञान गुण स्वयं ही उस आकार का होने पर भी अपना स्वत: सिद्ध ध्रुव रूप ज्ञानपना नहीं छोड़ता और इसीलिये ही उस पर को जाननेरूप ज्ञान गुण का परिणमन ज्ञान सामान्य रूप ज्ञान चेतना का (शुद्धज्ञान का) शत्रु नहीं, बाधक नहीं, ऐसा समझकर ऐसा डर हो तो अवश्य निकाल देना आवश्यक है; यही बात आगे दृढ़ कराते हैं
श्लोक ८५८ : अन्वयार्थ :- 'ज्ञानोपयोग के स्वभाव की महिमा ही कोई ऐसी है कि वह (ज्ञानोपयोग) प्रदीप की भाँति स्व तथा पर दोनों के आकार का एक साथ प्रकाशक है।' इस श्लोक में ज्ञान का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव दर्शाया है और उसे ही ज्ञान की महिमा कहा है।
श्लोक ८६० : अन्वयार्थ :- ‘जो स्वात्मोपयोगी ही है, वही नियम से उपयुक्त है ऐसा नहीं (जो मात्र स्व उपयोगी है, वही सम्यग्दृष्टि है ऐसा नहीं) तथा जो परपदार्थोपयोगी है, वही निश्चय से उपयुक्त है ऐसा नहीं (जो मात्र पर को जानता है वही सम्यग्दृष्टि है, ऐसा भी नहीं) परन्तु उभय (दोनों) विषय को जाननेवाला ही उपयुक्त अर्थात् उपयोग करनेवाला होता है-ऐसा नियम है, इस प्रकार क्रिया का अध्याहार - ऊहापोह करना चाहिये।' यानि सम्यग्ज्ञान स्व-पर के ज्ञान और विवेक सहित ही होता है, अन्यथा नहीं।
भावार्थ :- ‘मात्र स्व-विषय का या मात्र पर विषय का ही उपयोग करनेवाला कोई उपयोग वाला होता है ऐसा नहीं, परन्तु स्व-पर विषय का उपयोग करनेवाला ही आत्म ज्ञानी होता है।'