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________________ 134 सम्यग्दर्शन की विधि में भी बतलाया है कि ‘पाप जीव का शत्रु है और धर्म जीव का मित्र है, ऐसा निश्चय करता हुआ श्रावक यदि शास्त्र को जानता है, तो वह निश्चय से श्रेष्ठ ज्ञाता अथवा कल्याण का ज्ञाता होता है।' और आत्मानुशासन गाथा ८ में भी बतलाया है कि ‘पाप से दुःख और धर्म से सुख यह बात लौकिक में भी जगत प्रसिद्ध है और सभी समझदार मनुष्य भी ऐसा ही मानते हैं तो जो सुख के अर्थी हों, उन्हें पाप छोड़कर निरन्तर धर्म अंगीकार करना चाहिये।' इसलिये नियम से एकमात्र आत्म लक्ष्य से शुभ में ही रहना योग्य है ऐसा हमारा अभिप्राय है जैसा कि इष्टोपदेश श्लोक ३ में कहा है कि 'व्रतों द्वारा देव पद प्राप्त करना अच्छा है परन्तु अरे! अव्रतों द्वारा नरक पद प्राप्त करना अच्छा नहीं। जैसे छाया और धूप में बैठकर राह देखनेवाले दोनों (पुरुषों) में बड़ा अन्तर है, वैसे (व्रत और अव्रत का आचरण करनेवाले दोनों पुरुषों में बड़ा अन्तर है)।' आगे आत्मानुशासन गाथा २३९ की टीका में भी पण्डित श्री टोडरमलजी बतलाते हैं कि 'निश्चय दृष्टि से देखने पर एक शुद्धोपयोग ही उपादेय है। शुभाशुभ सर्व विकल्प त्याज्य हैं तथापि ऐसी तथा रूप दशा सम्पन्नता प्राप्त न हो तब तक उसी दशा की (शुद्धोपयोग रूप दशा की) प्राप्ति के लक्ष्यपूर्वक प्रशस्त योग (शुभ उपयोग रूप) प्रवृत्ति उपादेय है अर्थात् शुभ वचन, शुभ अन्त:करण, और शुभ काया परिस्थिति आदरणीय है-प्रशंसनीय है परन्तु मोक्षमार्ग का साक्षात् कारण नहीं तथापि शुद्धोपयोग के प्रति वृत्ति का प्रवाह कुछ अंश में लक्षित हआ है, ऐसे लक्ष्यवान जीवों को परम्परा से कारण रूप होता है। और आत्मानुशासन गाथा २४० में भी बतलाया है कि 'प्रथम अशुभोपयोग छूटे तो उसके अभाव से पाप और तज्जनित प्रतिकूल व्याकुलता रूप दुःख स्वयं दूर होता है और अनुक्रम से शुभ के भी छूटने से पुण्य, तथा तज्जनित अनुकूल व्याकुलताजिसे संसार परिणामी जीव सुख कहते हैं, उसका भी अभाव होता है...' इसलिये कोई स्वच्छन्दता से अशुभ उपयोग रूप न परिणमे ऐसा हमारा अनुरोध है क्योंकि ऐसा करने से तो उसका भव भ्रमण बढ़ जाएगा।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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