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सम्यग्दर्शन की विधि
प्रश्न :
- ऐसे पंचम काल में एक मुमुक्षु जीव को धर्म प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये ? उत्तर :- सबसे पहले उस मुमुक्षु जीव को भगवान के कथन के ऊपर विश्वास करके अपने कारोबार में से समय निकालना चाहिये क्योंकि धन पुण्य से आता है न कि कारोबार में ज़्यादा समय देने से। इस तरह से समय निकालकर उसे अपने सम्प्रदाय के शास्त्र निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ना चाहिये, फिर उसे अन्य सम्प्रदाय के शास्त्रों को भी निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ना चाहिये। उस अवलोकन में एक ही दृष्टि रखनी है कि “जो सच्चा है, वह मेरा है।"
शास्त्र कैसे पढ़ें
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उन शास्त्रों से अपनी आत्मा का निर्णय और अनुभव करने के लिये कार्यकारी बातें ग्रहण करनी हैं और अन्य विवादित बातों पर ज़्यादा लक्ष्य नहीं देना है। शास्त्रों को दर्पण रूप से पढ़ना अर्थात् शास्त्र की अच्छी बातें अगर मुझमें नहीं हों तो तुरन्त ही ग्रहण करना और अगर मेरी कोई बुरी बात लक्ष्य में आये तो तुरन्त ही निकालने की कोशिश करना और अगर निकाल नहीं पायें तब मन (अभिप्राय) से उस बुरी बात को अवश्य निकाल देना ताकि भविष्य में वह अपने आप निकल जायेगी ; यही है शास्त्र अभ्यास का तरीक़ा । इस तरह से शास्त्रों की बातों को अपने जीवन में प्रयोग में लायें और आगे बढ़ते जावें तब उसे अपने अन्तर से ही सत्य / असत्य का और उचित / अनुचित की समझ कालक्रम से आती रहेगी और वह खुले मन से आगे बढ़ता रहेगा; मुमुक्षु के लिये कोई भी शास्त्र अछूता नहीं होना चाहिये अर्थात् किसी भी शास्त्र का आग्रह, हठाग्रह, दुराग्रह नहीं होना चाहिये बल्कि सत्य की खोज और आग्रह होना चाहिये। किसी भी शास्त्र या सम्प्रदाय का आग्रह आदि होने से अपने आप ही अन्यों के प्रति द्वेष उमड़ना स्वाभाविक हो जाता है और वह द्वेष उस मुमुक्षु को अनन्त काल तक संसार में रखता है, क्योंकि वह द्वेष शृंखला रूप होता है इसलिये वह आगे आनेवाले अनेक भवों तक उस मुमुक्षु को दुःखी करने के लिये सक्षम है। इसी प्रकार वह मुमुक्षु परीक्षा करके आगे बढ़ सकता है । जैसे, अगर कोई भी शास्त्र या सम्प्रदाय या गुरु अन्यों के प्रति रोष रखते हों या द्वेष करते हों या कराते हों, तब यह सोचना कि यह निश्चित बात है कि सत्य धर्म में द्वेष के लिये कोई जगह नहीं होती, वहाँ मात्र करुणा होती है, इसलिये जहाँ द्वेष हो, वहाँ सत्य धर्म नहीं है, यह तय होता है। उस धर्म में कुछ कमी अवश्य है। इस प्रकार से मुमुक्षु का एकमात्र स्वकल्याण का ही लक्ष्य होना चाहिये न कि किसी मत - पन्थ-सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष की पालकी ढोने का या उसका प्रचार-प्रसार - विस्तार करने का कि जिससे अपने संसार का अन्त हो नहीं पायेगा। मुमुक्षु को उपर्युक्त दर्शाये गये पथ पर प्रयोगात्मक तरीके से