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________________ सम्यग्दर्शन की विधि मैं अनादि से इस लोक के सभी प्रदेशों में अनन्त बार जन्मा और मरा, अनन्त दुःख भोगे, अब कब तक यह शुरु रखना है ? इसके अन्त के लिए सम्यग्दर्शन आवश्यक है; अत: उसकी प्राप्ति का उपाय करना है। दूसरा, लोक में रहे हुए अनन्त सिद्ध भगवान और संख्यात अरिहन्त भगवान और साधु भगवन्तों की वन्दना करना और असंख्यात श्रावक-श्राविकाओं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों की अनुमोदना करना, प्रमोद करना है। 122 अनादि से मैं इस लोक में जन्म-मरण, नरक, तिर्यंच और निगोद के दुःख सहता आया हूँ, देव और मनुष्य भव में भी मैंने अनादि से कई दुःख भोगे हैं। जब तक मिथ्यात्व मौजूद है, जीव को भव भ्रमण करने ही पड़ेंगे और दुःख झेलने ही पड़ेंगे; इस तरह से लोक स्वरूप भावना का विचार करके हर एक जीव को अपना पूर्ण पुरुषार्थ आत्म प्राप्ति के लिये लगाना यही इस भावना का उद्देश्य है। लोक के स्वरूप का चिन्तन करना और उसमें स्थित अनन्तानन्त जीवों के भावों का, सिद्धों का, अरिहन्तों का, मुनि भगवन्तों का, श्रावक-श्राविकाओं का, सम्यग्दृष्टियों का, जीवों के प्रकार का, जीवों के दुःखों का, दुःखों से मुक्ति पाने के मार्ग का, नरक - निगोद के स्वरूप का, छह द्रव्यों का, द्रव्य-गुण-पर्याय का, पुद्गल रूपी शरीर इत्यादि का भी चिन्तन करना लोक स्वरूप भावना का उद्देश्य है। जिससे जीव को मुक्ति का मार्ग आसानी से मिल पाये और वह कर्मों से मुक्त होकर सादि - अनन्त काल तक अनन्तानन्त सुख का उपभोग करे; यही इस भावना का फल है। लोक, काल गणना इत्यादि की जानकारी लेना क्यों आवश्यक है ? ऐसा लोग पूछते हैं, उसका उत्तर यह है कि - उस जानकारी से पता चलता है कि लोक कितना बड़ा है और हम अनादि से उस लोक के हर प्रदेश पर अनन्तों बार कैसे जन्म-मरण कर चुके हैं, कैसे-कैसे दुःख सहे हैं और भविष्य में कब तक ऐसे जन्म-मरण करने हैं, दु:ख सहने हैं इत्यादि। इससे पता चलता कि एक आत्म ज्ञान नहीं होने से जीव कितना दुःखी होता है और आगे कितना दुःखी हो सकता है; इससे जीव जागृत हो सकता है और प्रमाद से बचके अपना आत्म कल्याण कर सकता है, यह है फल लोक स्वरूप भावना का । परन्तु किसी भी साधन को जब हम साध्य बना लेते हैं, तब हमारी प्रगति रुक जाती है। यह एक बड़ा भयस्थान है। इसीलिये किसी भी साधन का उचित उपयोग करके आगे बढ़ना होता है, न कि वहीं पर रुक जाना है अर्थात् उस साधन से लगाव नहीं बनाना है परन्तु अपने साध्य मोक्ष के लिये ही उस साधन (करणानुयोग ) का उपयोग करके
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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