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________________ सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता 113 चलेगा। बुढ़ापे में भी ऐसे जीव आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान करते देखे जाते हैं क्योंकि बुढ़ापे में भी मात्र शरीर ही बुढ़ा हुआ है; मन तो सदा जवान ही रहता है अर्थात् मन बुढ़ापे में भी विषयकषायों के पीछे भागता रहता है, बुढ़ापे में सभी ख़्वाहिशें ज़िन्दा रहती हैं - मन में से काम भाव हटता नहीं। इस तरह से हम अनादि से इस संसार में भटक रहे हैं, अब कब तक यह सब जारी रखना है? संसार में कहीं भी शाश्वत् सुख नहीं है। हम अनन्तों बार देव लोक के सुख भोगकर आये हैं, परन्तु वे भी एक दिन पूरे हो जाते हैं और कई जीव उन सुखों में से अनन्तों बार सीधे एकेन्द्रिय में भी चले जाते हैं; जहाँ दु:ख ही दुःख है। कई बार राजा भी पल भर में एकेन्द्रिय में चला जाता है और वैसे भी हर एक सांसारिक सुख का अन्त निश्चित ही है, फिर ऐसे सुख के पीछे पागल बनना-ममत्व करना कौन सी समझदारी है? यह सब न समझ पाने के कारण ही अनादि से ऐसे जीव संसार में भटक रहे हैं। इससे यह तय होता है कि यह पूरा जीवन एकमात्र आत्म प्राप्ति के पीछे ख़र्च करने योग्य है। त्वरा से सम्यग्दर्शन प्राप्त करके थोड़े काल में ही अमर बन जाना है - सिद्धत्व पा लेना है। वैसे भी ऊपर कहे गये सुख (सुखाभास) भी तो पुण्य से ही प्राप्त होते हैं, मात्र पुरुषार्थ से नहीं। इसलिये अगर आपके पुण्य पुख़्ता होंगे तो अल्प पुरुषार्थ से ही वे अपने-आप प्राप्त होनेवाले हैं, फिर उनके पीछे भागने की क्या आवश्यकता है? आत्म प्राप्ति के लिये किये गये पुरुषार्थ से, न माँगने पर भी जब तक मोक्ष नहीं मिलता तब तक सांसारिक सुख मुफ्त में मिलते रहते हैं। इस कारण से ज़्यादातर समय आत्म कल्याण के लिये ही लगाने योग्य है और कम से कम समय अर्थार्जन आदि में लगाना योग्य है। इस तरह से हर एक संसारी जीव को अनित्य को छोड़कर नित्य ऐसा शुद्धात्मा को और परम्परा से मोक्ष को पाना चाहिये, यही इस भावना का फल है। अशरण भावना :- मेरे पापों के उदय समय मुझे माता-पिता, पत्नी-पुत्र, पैसा इत्यादि कोई भी शरण हो सके ऐसा नहीं है। वे मेरा दुःख ले सकें ऐसा नहीं है। इसलिये उनका मोह त्यागना, उनमें मेरापन त्यागना परन्तु कर्तव्य पूरी तरह निभाना। जब किसी भी जीव का मृत्यु का समय होता है अर्थात् उसकी आयु पूर्ण होती है, तब उस जीव को इन्द्र, नरेन्द्र आदि कोई भी बचाने को समर्थ नहीं होते अर्थात् तब उस जीव के लिये, मृत्यु से बचने के लिये जगत में कोई शरण नहीं रहता। इस जगत में मृत्यु के सामने जीव अशरण है, निकाचित कर्म के सन्मुख भी जीव अशरण है। ख़ुद को पराक्रमी, शक्तिमान, धनवान, ऐश्वर्यवान, गुणवान आदि समझनेवाले को भी अहसास हो जाता है कि मरण के समय इनमें से कुछ भी शरण रूप नहीं होता। डॉक्टर, वैद्य,
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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