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________________ 112 सम्यग्दर्शन की विधि प्रसंग का उसी परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करना आवश्यक है। अब आगे हम बारह भावना का स्वरूप संक्षेप में समझाते हैं। बारह भावनाएँ/अनुप्रेक्षाएँ अनित्य भावना :- सभी संयोग अनित्य हैं। पसन्द या नापसन्द ऐसे वे कोई भी संयोग मेरे साथ नित्य रहनेवाले नहीं हैं। इसलिये उनका मोह या दःख त्यागना, उनमें 'मैंपन' और मेरापन त्यागना चाहिये। ऐसा हमने पढ़ा-सुना होने के बावजूद भी उस बात का विश्वास नहीं होने से ही हम सब अनादि से उन अनित्यों के पीछे भाग रहे हैं। इसी कारण से हम सब अनादि से आज तक संसार में भटक रहे हैं। जैसे धन, सम्पत्ति, पत्नी, पुत्र, परिवार इत्यादि के लिये हमने अपने अनन्त जीवन पूर्ण रूप से न्यौछावर कर दिये हैं। अब इस जीवन में मुझे इन सबका मोह ज्ञान गर्भित वैराग्य की प्राप्ति करके छोड़ना है और मात्र अपने कर्तव्यों का यन्त्रवत निर्वहन करते हुए अपने शेष सभी संसाधन (समय, धन-सम्पत्ति, बुद्धिमत्ता, चातुर्य आदि) एकमात्र आत्म प्राप्ति में ही लगाने योग्य है क्योंकि एकमात्र आत्मा ही नित्य है, अनन्त-अव्याबाध सुख की खान है। इस भावना को जीवन में हर पल जीवन्त रखना है, तभी हमारे संसार का अन्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। हम अपने जीवन काल में कई जीवों को मत्य से नष्ट होते देखते हैं, कई शरीरों को रोगग्रस्त होते देखते हैं, कई परिवारों को बिछड़ते देखते हैं, कई धनवानों को रंक होते भी देखते हैं; फिर भी हम ऐसे जीते हैं जैसे हम कभी भी मरनेवाले ही नहीं हैं और हम अपने को रूप से, धन-वैभव से, परिवार से बड़ा मानकर मान कषाय पोसते रहते हैं। हमें पता नहीं कि हमारी आयु कब पूरी हो जायेगी, कब बीमारी आ जायेगी यह भी पता नहीं, कब मेरा रूप समाप्त हो जायेगा यह भी पता नहीं, कब कोई हड्डी टूट जायेगी यह भी पता नहीं, कब दर्घटना हो जाये पता नहीं, परिवार में प्रेम कब दुश्मनी में तब्दील हो जाये यह भी पता नहीं, कब ख़ुशी मातम में बदल जाये यह भी पता नहीं; फिर भी हम इन चीज़ों पर गुमान करके अपना परम अहित करते हैं। ज़्यादातर जीव अपने यौवन काल को विषयों और कषायों के पीछे बर्बाद करते देखे जाते हैं, प्रौढ़ावस्था सांसारिक कार्यों में अपनी कुशलता प्रमाणित करने में ख़र्च करते देखे जाते हैं, कई जीव अपनी प्रौढ़ावस्था समाज में नाम करने के पीछे गँवाते देखे जाते हैं; इस तरह से कई जीव अनन्त काल के बाद मिला हुआ धर्म प्राप्त करने का अवसर गँवाते देखे जाते हैं और इन सबके पीछे भागते हुए बुढ़ापा कब अपनी दहलीज़ पर आ धमकेगा यह भी उनको पता नहीं
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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