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________________ सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता 109 मत-पन्थ-व्यक्ति विशेष रूप पक्ष का आग्रह हो और जो वैसे पूर्वाग्रह-हठाग्रह छोड़ सकते हैं वे) स्वरूप में गुप्त होकर (अर्थात् स्व में अर्थात् शुद्धात्मा में ही “मैंपन' करके सम्यग्दर्शन रूप परिणमकर) सदा रहते हैं, वे ही (अर्थात् नय और पक्ष को छोड़ते हैं, वैसे मुमुक्षु जीव ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और वे ही), जिनका चित्त विकल्प मल से रहित शान्त हुआ है ऐसे होते हुए (अर्थात् निर्विकल्प 'शुद्धात्मा' का अनुभव करते हुए) साक्षात् अमृत को (अर्थात् अनुभूति रूप अतीन्द्रिय आनन्द को) पीते हैं (अनुभव करते हैं)।" वास्तव में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये सभी जनों को नय और पक्ष का आग्रह छोड़ने योग्य है। ऐसी समस्याओं के बीच अगर कोई मुमुक्षु जीव ऐसे ग़लत अर्थ घटन करनेवालों में फंस गया तो उसका सम्पूर्ण जीवन नष्ट हो जाता है और इससे उसका अनन्त काल अन्धकारमय हो सकता है। ऐसी विडम्बना है इस हण्डावसर्पिणी पंचम काल की, इसलिये हमने कहा है कि - “सत्य धर्म की प्राप्ति प्राय:ज्ञानी के पास से ही सम्भव है।" क्योंकि ज्ञानी को मत, पन्थ, सम्प्रदाय का पक्ष, आग्रह, हठाग्रह, दुराग्रह नहीं होता और इसी कारण से ज्ञानी आगमों तथा शास्त्रों का यथार्थ अर्थ घटन भी कर सकता है। ज्ञानी ही सत्य धर्म का वैद्य या डॉक्टर है कि जो आपके आध्यात्मिक स्तर के अनुसार आपके लिये उपयुक्त साधना बता सकता है। अपने आप की हई साधना स्वच्छन्द कहलाती है। इसलिये हमने कहा है कि “सत्य धर्म की प्राप्ति प्राय: ज्ञानी के पास से ही सम्भव है।" वैराग्य:- सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु सत्य धर्म के साथ वैराग्य भी आवश्यक है, अब आगे हम उसका स्वरूप समझाते हैं। वैराग्य यानी संसार की ओर से दृष्टि का हट जाना, संसार असार लगना। वैराग्य दो प्रकार का होता है, एक दुःख गर्भित और दूसरा ज्ञान गर्भित। दुःख गर्भित वैराग्य सांसारिक दुःखों से त्रस्त होकर, बीमारी के कारण, कोई आधि-व्याधि या उपाधि के कारण, किसी के साथ मोह भंग या प्रेम भंग के कारण अथवा अपनों की मृत्यु के समय आता है। यह वैराग्य नकारात्मक होता है क्योंकि इसके पीछे संसार में से माना हुआ सुख न मिलना यह कारण होता है। ऐसे दुःख गर्भित वैराग्य से प्रेरित होकर जो धर्म करते हैं, उनको ज़्यादा करके धर्म के कारण सांसारिक सुखों की प्राप्ति का ही आशय बना रहता है और इस से वे धर्म का उत्तम फल ऐसे सम्यग्दर्शन और मोक्ष से वंचित ही रहकर एकेन्द्रिय में चले जाते हैं, जिस में वे अनन्त काल रह सकते हैं और भगवान ने एकेन्द्रिय से निकलना चिन्तामणिरत्न की
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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