SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन की विधि प्रति उपेक्षा भाव अर्थात् कि मध्यस्थ भाव भाना है और साथ ही आगे जो हम बतलानेवाले हैं, वह “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!) ” का भाव भी सँजोना है, जिससे हम उस अपमान आदि का हमारे हक़ में उपयोग कर सकें और हम कर्मों के दुष्चक्र से भी बच सकें। परन्तु जिस जीव को मत-पन्थ-सम्प्रदाय का पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह होगा, उस जीव के लिये मध्यस्थ भाव रखना असम्भव ही होगा क्योंकि उस जीव को अपना-परायापन और पसन्दनापसन्दगी के तीव्र भाव होने से वह जीव दुश्मन जीवों के प्रति मध्यस्थ बुद्धि नहीं रख पायेगा। वह जीव अपने सम्प्रदायवालों के ऊपर शायद माध्यस्थ भाव कर भी लेगा, मगर अन्यों के लिये तो वह तिरस्कार, रोष और तुच्छपने का ही भाव करेगा। ऐसे भाव अध्यात्म के घातक होने से ही ज्ञानियों ने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह सेवन करने से रोका है। फिर भी अगर कोई जीव एक सम्प्रदाय विशेष का आग्रह रखकर, उसी सम्प्रदाय विशेष में सम्यग्दर्शन है ऐसा मानकर अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ना चाहता है तो यह, उस जीव की बहुत बड़ी ग़लती होगी और उसे अध्यात्म मार्ग तो दर संसार में भी शान्ति और प्रसन्नता मिलना-टिकना कठिन हो जाएगा। 96 अनादि से हम दुःखों का प्रतिकार करना ही सीखे हैं, उनका स्वीकार करना कभी नहीं सीखे। तब उन दुःखों का स्वागत करना तो बहुत दूर की बात है अपितु निम्नलिखित स्वागत करने के तरीक़े से हम उन दुःखों का सर्वोत्कृष्ट सकारात्मक ढंग (extraordinary excellent positive thinking) से सामना करके उन दुःखों के दुष्चक्र से मुक्ति पा सकते हैं। इस तरीके को हस्तगत/अभ्यस्त करने के लिये निम्नलिखित “धन्यवाद ! स्वागतम्! (Thank you! Welcome!)” दिन में कम से कम दस बार पढ़कर, मन में बैठाना आवश्यक है। क्योंकि जीवों की प्रतिक्रिया तात्कालिक होती है, प्रतिक्रिया के लिये सोचने का ज़्यादा समय नहीं होता; आत्मा में रहे हुए पूर्व निर्धारित संस्कार अनुसार ही तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है, उसे बदलने के लिये निम्नलिखित “धन्यवाद! स्वागतम्! (Thank you! Welcome!)” दिन में कम से कम दस बार पढ़कर, मन में बिठाना आवश्यक है। तब फिर धीरे-धीरे जो रोष पहले सालों/महीनों तक रहता था, वह दिनों के भीतर ही समाप्त होने लगेगा। आगे-आगे “धन्यवाद ! स्वागतम्! (Thankyou! Welcome!)” का अभ्यास जितना गहन हो जायेगा, उतना - उतना मन का रोषयुक्त रहने का काल कम होता जायेगा और एक दिन ऐसा भी आयेगा कि फिर मन में रोष या द्वेष का जन्म ही नहीं होगा; यही अपना लक्ष्य होना चाहिये। इस तरीके से हम दुःख के दुष्चक्र से बच सकते
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy