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________________ क्योंकि इन तीनों बोलों में निगोदिया जीव अनन्त-अनन्त होते हैं। 6. असन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के पर्याप्त जीव मरकर पहली नारकी, भवनपति तथा वाणव्यन्तर देवों में जाकर उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसे जीव अपर्याप्त अवस्था में कुछ समय असन्नी रहते हैं, इस अपेक्षा से पहली नारकी, भवनपति, वाणव्यन्तर देवों में जीव के 3 भेद (असन्नी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्त, सन्नी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्त तथा सन्नी पंचेन्द्रिय का पर्याप्त) होते हैं। 7. यद्यपि असन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव मरकर भवनपति, वाणव्यन्तर में देवी भी बन सकता है, किन्तु नपुंसक अवस्था तक उसकी गणना देवी में नहीं करके देवों में ही की जाती है, वह भी मात्र अन्तर्मुहर्त के लिए होती है। जिस प्रकार से इसी थोकड़े के पहले बोल सबसे थोड़े गर्भज मनुष्य में नपुंसक वेदी मनुष्य को भी सम्मिलित किया गया है, किन्तु मनुष्यिनी के बोल में नपुंसक वेदी मनुष्य की गणना नहीं की। उसी प्रकार देवी में भी नपुंसकवेदी असन्नी पंचेन्द्रिय की गणना नहीं की। अत: देवी में जीव के भेद-2 (सन्नी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्त व पर्याप्त) ही माने गये हैं। | 39
SR No.034370
Book TitleRatnastok Mnjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2016
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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