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दोनों बोलों की अल्पबहुत्व भी तभी सम्भव है, जब श्रेणी करने वाले जीव ग्यारहवें अथवा बारहवें गुणस्थान में हों। उपशम श्रेणी व क्षपक श्रेणी दोनों ही शाश्वत नहीं हैं। इनमें भी उपशम श्रेणी में पृथक्त्व वर्ष का तथा क्षपक श्रेणी में 6 माह का उत्कृष्ट विरह पड़ सकता है। अत: विरह काल में 94वाँ से 95वाँ बोल विशेषाधिक न होकर समान ही होंगे। 97वाँ बोल-संसारी जीव विशेषाधिक है। यह अल्पबहुत्व 96वें बोल की अपेक्षा तुलना करने पर बनती है। यह तभी सम्भव है जबकि चौदहवें-अयोगी केवली गुणस्थान में जीव रहे। 14वाँ गुणस्थान शाश्वत नहीं है। सिद्धों के विरह के समान इसमें भी उत्कृष्ट 6 माह का विरह पड़ता है तब 14वाँ गुणस्थान भी नहीं मिलेगा। उस समय 14वें गुण-स्थान में अयोगी जीव नहीं होने से 96-97वें बोल की अल्पबहुत्व
विशेषाधिक न होकर दोनों की एक समान ही होगी। 4. बोल क्रमांक 54, 60, 72 और 73 ये चारों निगोदिया जीवों
के औदारिक शरीर की अपेक्षा से समझने चाहिए। क्योंकि उनके औदारिक शरीर असंख्यात ही होते हैं। ये चारों बोल
निगोद कहलाते हैं। 5. बोल क्रमांक 82, 84, 88 सूक्ष्म व साधारण वनस्पतिकाय
के जीवों अर्थात् निगोदिया जीवों की अपेक्षा से समझने चाहिए,
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