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________________ धर्मदेव की आगति-275 की। 171 की लड़ी (179 में से तेउकाय व वायुकाय के 8 कम करके), 99 जाति के देव और पहली 5 नारकी के पर्याप्त। देवाधिदेव की आगति-38 की। 12 देवलोक, 9 लोकांतिक, 9 ग्रैवेयक, 5 अनुत्तर विमान और पहली तीन नारकी के पर्याप्त। भावदेव की आगति-111 की। 101 सन्नी मनुष्य, 5 सन्नी तिर्यञ्च और 5 असन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय । इन सभी के पर्याप्त। 4. गति द्वार-भव्य-द्रव्य देव की गति-198 की। 99 जाति के देवता के अपर्याप्त और पर्याप्त। नरदेव की गति-14 की-7 नारकी के अपर्याप्त और पर्याप्त।' धर्मदेव की गति-70 की या मोक्ष की। 12 देवलोक, 9 लोकांतिक, 9 ग्रैवेयक, 5 अनुत्तर विमान। इन 35 के अपर्याप्त और पर्याप्त। देवाधिदेव की गति-मोक्ष की। भावदेव की गति-46 की-15 कर्मभूमि, 5 सन्नी तिर्यञ्च, 5. यद्यपि कोई-कोई नरदेव (चक्रवर्ती) देवों में भी उत्पन्न होते हैं तथा मोक्ष में भी जाते हैं। किंतु वे नरदेवपना छोड़कर धर्म देवपना (साधुपना) अंगीकार करें तो ही जाते हैं। काम-भोगों का त्याग किये बिना नरदेव (चक्रवर्ती) अवस्था में ही काल कर जाय तो वे सातों में से किसी भी एक नरक में उत्पन्न होते हैं। 25
SR No.034370
Book TitleRatnastok Mnjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2016
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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