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________________ सूर्यग्रहण भी 4 वर्ष (48 माह) में अवश्य हो जाता है अर्थात् उसका विरह 4 वर्ष से अधिक नहीं हो सकता। किन्तु यह ग्रहण अलग-अलग राशि पर होता है। एक ही राशि पर ग्रहण का उत्कृष्ट विरह 48 वर्ष का होता है। चन्द्र और सूर्य ग्रहण के विरह का उल्लेख भगवती सूत्र शतक 12 उद्देशक 6 में किया गया है। 8. नवीन साधु का विरह-1, 3, 4, 5 गुणस्थान से 7वें गुणस्थान में आने की अपेक्षा समझना चाहिए। नवीन श्रावक का विरह-1, 3, 4, 6 गुणस्थान से पाँचवें गुणस्थान में आने की अपेक्षा समझना चाहिए। नवीन सम्यग्दृष्टि का विरह-पहले अथवा तीसरे गुणस्थान से चौथे आदि गुणस्थान में आने की अपेक्षा से समझना चाहिए। नवीन साधु, श्रावक और सम्यग्दृष्टि के विरह का वर्णन विशेषावश्यक भाष्य में मिलता है। 8. चक्रवर्ती का विरह-तीर्थङ्करों के अथवा तिरेसठ श्लाघनीय पुरुषों के आयु, अवगाहना, परस्पर के विरह (अन्तर) में कोई निश्चित अनुपात नहीं है। अवसर्पिणी काल होने से आयु, अवगाहना में कमी होना तो निश्चित है, परन्तु कमी का क्रम (अनुपात) निश्चित नहीं है। जैसे किबीसवें तीर्थङ्कर की आयु - 30,000 वर्ष इक्कीसवें तीर्थङ्कर की आयु - 10,000 वर्ष बाईसवें तीर्थङ्कर की आयु ___ 1,000 वर्ष
SR No.034370
Book TitleRatnastok Mnjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2016
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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