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________________ भरत, ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा तीर्थङ्कर तथा 3 चारित्र (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात) का जघन्य विरह 84,000 वर्ष का, चक्रवर्ती का जघन्य विरह देशोन 2,52,000 वर्ष, बलदेव और वासुदेव का जघन्य विरह 2,52,000 वर्षों का, साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका, पाँच महाव्रत तथा दो चारित्र ( सामायिक, छेदोपस्थापनीय) का जघन्य विरह 63,000 वर्षों का। बलदेव व वासुदेव का उत्कृष्ट विरह देशोन 20 कोडाकोडी सागरोपम का तथा शेष सभी का उत्कृष्ट विरह देशोन 18 कोडाकोडी सागरोपम का होता है। विरह द्वार के थोकड़े से सम्बन्धी ज्ञातव्य तथ्य 1. जितने समय तक उस-उस गति-जाति आदि में एक भी जीव उत्पन्न नहीं हो, उस काल को 'विरह' कहते हैं । अथवा जितने समय तक अभाव रूप अवस्था होती है, उसे विरह कहते हैं । 2. चारों गतियों का उत्कृष्ट विरह बारह मुहूर्त्त बतलाया है, जिसका तात्पर्य है कि बारह मुहूर्त्त के बाद तो कोई न कोई जीव एक गति से दूसरी गति में उत्पन्न होता ही है। 3. संग्रहणी वृत्ति के आधार से तथा क्षेत्रलोक प्रकाश (उत्तरार्ध) सर्ग 27 श्लोक संख्या 439 से 442 तथा 478 के आधार से नवमें देवलोक से लेकर नव ग्रैवेयक तक का विरह इस प्रकार समझना चाहिए 15
SR No.034370
Book TitleRatnastok Mnjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2016
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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