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________________ XLIII भूमिका से पार होने के लिए पुण्य रूपी नौका अपेक्षित है, क्योंकि साधना की पूर्णता मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति में है और मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति के लिए पुण्य कर्मों का सम्पादन आवश्यक है, अत: पुण्य कर्मों की उपादेयता निर्विवाद है। पुण्य कर्मों को बंधन रूप मानकर जो उनकी उपेक्षा की जाती है वह बंधन के स्वरूप की सही समझ नहीं होने के कारण है। पुण्य कर्म जब निष्काम भाव से किये जाते हैं तो उनसे बंधन नहीं होता है। यदि जैन धर्म की शास्त्रीय भाषा में कहें तो उनमें मात्र ईर्यापथिक बंध होता है, जो वस्तुत: बंध नहीं है। बंधन जब भी होगा वह राग-द्वेष (कषाय) एवं फलाकांक्षा की सत्ता होने पर ही होगा, उनका अभाव होने पर बंधन नहीं होगा। जैन कर्म सिद्धांत का यह शाश्वत नियम है कि किसी भी कर्म का स्थिति बंध कषाय के कारण है। अत: वीतराग दशा की प्राप्ति पर शुभ कर्म या पुण्य कर्म अकर्म बन जाते हैं, वे बंधन नहीं करते हैं। अत: त्याज्य 'कषाय' है न कि 'पुण्य' कर्म। आत्मा की शुद्ध दशा की प्राप्ति अर्थात् शुद्धोपयोग में उपस्थिति कषाय के अभाव में संभव है। अत: उसकी प्राप्ति के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है, न कि पुण्य प्रवृत्ति का। वस्तुत: जब राग-द्वेष (कषाय) एवं फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है तब वह शुभकर्म अकर्म बन जाता है। कषाय चाहे अधिक हो या अल्प, वह त्याज्य है, वह पाप रूप ही है, क्योंकि वह बंधन का कारण ही है। आदरणीय कन्हैयालालजी लोढ़ा का यह कथन शत-प्रतिशत सही है कि मंद कषाय पाप रूप है, किंतु कषाय की मंदता पुण्य रूप है। कषाय में जितनी मंदता होगी पुण्य प्रभार उतना ही अधिक होगा। पुण्य प्रवृत्तियाँ जब भी होती हैं, वे कषाय की मंदता में ही होती हैं। अत: कषाय चाहे वह मंद ही क्यों न हो, त्याज्य है, किंतु कषाय की मंदता उपादेय है, क्योंकि साधक कषाय
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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