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________________ XLII पुण्य-पाप तत्त्व हित बुद्धि से किये जाते हैं, वे वस्तुतः शुभ होते हैं । निष्काम भाव और कर्त्तव्य बुद्धि से लोक मंगल के लिए किये गये ऐसे कर्म शुभ भी हैं और शुद्ध भी। यहाँ शुभ और शुद्ध में विरोध नहीं है। कसायपाहुड की जयधवला टीका में अनुकंपा और शुद्धोपयोग से भी आस्रव माना है, किंतु ऐसा आस्रव हेय नहीं है। तीर्थङ्कर वीतराग होते हैं। उन्हें शुद्धोपयोग दशा में भी योग की सत्ता बने रहने पर शुभास्रव तो होता ही है। अतः शुद्धोपयोग और शुभास्रव विरोधी नहीं है। शुद्धोपयोग आत्मा की अवस्था है जबकि शुभ योग, जो `पुण्य बंध का कारण है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का ही परिणाम है। जब तक जीवन है, योग होंगे ही। यदि शुभ योग नहीं होंगे तो अशुभ योग होंगे, अत: अशुभ से निवृत्ति के लिए शुभ में प्रवृत्ति आवश्यक है अर्थात् पाप से निवृत्ति के लिए पुण्य रूप प्रवृत्ति आवश्यक है। अर्थात् पाप से निवृत्ति के लिए पुण्य रूप प्रवृत्ति आवश्यक है। पाप से अर्थात् अशुभ योग से निवृत्ति होने पर ही शुभ योग के द्वारा शुद्धोपयोग की प्राप्ति संभव है। शुभ-योग शुद्धोपयोग में बाधक नहीं, साधक है। शुभ योग और शुद्धोपयोग में साधन-साध्य भाव है, अत: उन्हें अविरोधी मानकर शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति के लिए साधन रूप शुभ योगों अर्थात् पुण्य कर्मों का अवलंबन लेना चाहिये । पाप रूपी बीमारी को हटाने के लिए पुण्य प्रवृत्ति औषधि रूप है जिससे आत्म-विशुद्धि रूप स्वास्थ्य या शुद्धोपयोग दशा की प्राप्ति होती है। शुद्धोपयोग में शुभोपयोग अर्थात् पुण्य कर्म बाधक नहीं साधक ही है। वस्तुतः शुभाशुभ कर्मों से जो ऊपर उठने की बात कही जाती है उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि मोक्षरूपी साध्य की उपलब्धि होने पर व्यक्ति पुण्य-पाप दोनों का अतिक्रमण कर जाता है। जिस प्रकार नदी पार करने के लिए नौका की अपेक्षा होती है, किंतु जैसे ही किनारा प्राप्त हो जाता है, नौका भी छोड़ देनी पड़ती है, किंतु इससे नौका की मूल्यवत्ता या महत्ता को कम नहीं आंकना चाहिये । पार होने के लिए उसकी आवश्यकता तो अपरिहार्य रूप से होती है। वैसे ही संसार रूपी समुद्र
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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