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________________ XLIV पुण्य-पाप तत्त्व को मंद करते-करते अंत में वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है और जब वह वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है तो उसकी स्वाभाविक रूप से नि:सृत होने वाली लोकमंगलकारी पुण्य प्रवृत्तियाँ बंधन कारक नहीं होती हैं। वे त्याज्य नहीं, अपितु उपादेय ही होती हैं। बंधन पुण्य प्रवृत्तियों से नहीं होता है, बंधन तो व्यक्ति की निदान बुद्धि या फलाकांक्षा से होता है अथवा कषाय की उपस्थिति से होता है। गुणस्थान सिद्धांत के अनुसार भी कर्मबंध दसवें गुणस्थान तक ही संभव है, क्योंकि दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ (सूक्ष्म लोभ) की सत्ता है। ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक लोकमंगल की प्रवृत्तियों के फलस्वरूप जो द्वि-समय का ईर्यापथिक सातावेदनीय कर्म का बंध होता है वस्तुत: वह बंधन नहीं है। अत: पुण्य रूप सद्प्रवृत्तियाँ बंध रूप नहीं हैं अत: वे हेय नहीं उपादेय हैं। हेय तो कषाय हैं, जो पाप रूप हैं। प्रस्तुत कृति में पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा ने पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता को सप्रमाण सिद्ध किया है। उनके मुख्य प्रतिपाद्य बिंदु निम्न प्रकार से हैं(1) पुण्य तत्त्व और पुण्य कर्म में अंतर है। चाहे पुण्य कर्म बंधन के निमित्त हों, किंतु पुण्य तत्त्व बंधन का निमित्त नहीं है। पुण्य कर्म क्रिया या योग रूप है। इससे उसका आस्रव एवं बंध संभव है, किंतु पुण्य तत्त्व उपयोग रूप है, शुभ आत्म परिणाम रूप है जो कषाय की मंदता का परिणाम है। अत: कषाय की मंदता रूप पुण्य तत्त्व आत्म-विशुद्धि का निमित्त होने से उपादेय है। कषाय की मंदता और मंद कषाय में अंतर है। जहाँ कषाय की मंदता पुण्य रूप है वहाँ मंद कषाय भी पाप रूप है। कषाय की मंदता से शुभ परिणाम होते हैं और उससे पुण्य तत्त्व में अभिवृद्धि
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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