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________________ भूमिका XXV (विपाक), 14. निर्जरा, 15. क्रिया, 16. अक्रिया, 17. क्रोध, 18. मान, 19. माया, 20. लोभ, 21. प्रेम (राग), 22. द्वेष, 23. चतुरंग संसार, 24. सिद्धस्थान, 25. देव, 26. देवी, 27. सिद्धि, 28. असिद्धि, 29. साधु, 30. असाधु, 31. कल्याण और 32. पाप (अकल्याण) । -सूत्रकृतांग 2/5/765-78 यहाँ हम देखते हैं कि सोलह युग्मों में बत्तीस तत्त्वों को गिनाया गया है। इन युग्मों में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और कल्याण-अकल्याण (पाप) ये तीन युग्म ऐसे हैं जिनमें अर्थ की निकटता है। फिर भी जहाँ धर्म और अधर्म क्रमशः सम्यक् एवं मिथ्या साधना मार्ग के सूचक हैं, वहाँ पुण्य और पाप क्रमशः सत्कर्म और असत्कर्म के अथवा नैतिक कर्म और अनैतिक कर्म के सूचक हैं। जबकि कल्याण एवं पाप (अकल्याण) का संबंध उपादेय और हेय से है। फिर भी इनमें किसी सीमा तक अर्थ की जो निकटता है, उसको ध्यान में रखते हुए तत्त्व संबंधी अन्य सूचियों में इन तीन युग्मों में से दो को छोड़कर मात्र पुण्य और पाप को ही स्थान दिया गया। सूत्रकृतांग केही द्वितीय श्रुतस्कन्ध (2.715) में यह सूची संकुचित रूप में मिलती है। उसमें निम्न 12 तत्त्वों को ही स्वीकार किया गया है 1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आस्रव, 6. संवर, 7. वेदना, 8. निर्जरा, 9. क्रिया, 10. अधिकरण, 11. बंध और 12. मोक्ष । ऐसी ही एक अन्य संकुचित सूची आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन (उद्देशक 1 ) में मिलती है। इसमें लोक के अस्तित्वअनस्तित्व, सादि-अनादि, ध्रुव (नित्य) - अनित्य, सान्त-अनन्त आदि की चर्चा के साथ-साथ सुकृत- दुष्कृत, कल्याण- पाप, साधु-असाधु, सिद्धिअसिद्धि और नरक-अनरक ऐसे पाँच युग्मों में दस तत्त्वों का उल्लेख है। इसी क्रम में उत्तराध्ययन सूत्र में आते-आते तत्त्वों की इस सूची में पुन: संकोच हुआ और सूत्रकृतांग की 12 तत्त्वों की इस सूची में से वेदना,
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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