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________________ XXIV पुण्य-पाप तत्त्व किंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि पुण्य और पाप का न केवल आस्रव होता है, अपितु उनका बंध और विपाक भी होता है। अत: पुण्य और पाप को मात्र आस्रव नहीं माना जा सकता। वस्तुत: तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति की दृष्टि संक्षिप्तीकरण की रही है, क्योंकि वह ग्रन्थ सूत्र रूप में है। यही कारण है कि उन्होंने न केवल तत्त्वों के संबंध में अपितु अन्य संदर्भो में भी अपनी सूचियों का संक्षिप्तीकरण किया है, जैसे उत्तराध्ययन और कुंदकुंद के ग्रन्थों में वर्णित चतुर्विध मोक्ष-मार्ग के स्थान पर त्रिविध मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन करते हुए तप को चारित्र में ही अंतर्भूत मान लेना, सप्तनय की अवधारणा में समभिरूढ़नय और एवंभूतनय को शब्दनय के अंतर्गत मानकर मूल में पाँच नयों की अवधारणा को प्रस्तुत करना आदि। इसी क्रम में उन्होंने पुण्य और पाप को भी आस्रव के अंतर्गत मानकर नवतत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की है। ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन के इतिहास में कालक्रम में विभिन्न तात्त्विक अवधारणाओं की सूचियों में कहीं संकोच की तो कहीं विस्तार की प्रवृत्ति दिखलाई देती है। इसकी चर्चा पं. दलसुख भाई मालवणिया ने अपनी लघु पुस्तिका 'जैनदर्शन का आदिकाल' में की है। जहाँ तक तत्त्वों की संख्या संबंधी सूची संकुचित एवं विस्तारित होती रही है। ज्ञातव्य है कि जैनधर्म-दर्शन में तत्त्वों को श्रद्धा का विषय माना गया है। तत्त्वार्थ सूत्र (1/3) में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि तत्त्व श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। किंतु जिन तत्त्वों पर श्रद्धा रखनी चाहिए अर्थात् उनको अस्ति रूप मानना चाहिए नास्ति रूप नहीं, इसकी चर्चा करते हुए सर्वप्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँचवें अध्ययन में बत्तीस तत्त्वों की एक विस्तृत सूची दी गई है, जो निम्न है 1. लोक, 2. अलोक, 3. जीव, 4. अजीव, 5. धर्म, 6. अधर्म, 7. बंध, 8. मोक्ष, 9. पुण्य, 10. पाप, 11. आस्रव, 12. संवर, 13. वेदना
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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