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________________ भूमिका XXIII कन्हैयालालजी लोढ़ा ने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये वे न केवल प्रामाणिक हैं, अपितु हमें इस प्रश्न पर पुनश्चिंतन को बाध्य करते हैं। वस्तुत: समस्या क्या है और उसका दार्शनिक समाधान क्या है, इस प्रश्न पर अग्रिम पृष्ठों कुछ गंभीर चर्चा करेंगे। में जैन तत्त्व मीमांसा में पाप और पुण्य भारतीय धर्म-दर्शनों में पुण्य और पाप की अवधारणा अति प्राचीन काल से पाई जाती है। इन्हें धर्म-अधर्म, कुशल - अकुशल, शुभ -अशुभ, नैतिक-अनैतिक, कल्याण- पाप आदि विविध नामों से जाना जाता है। जैन धर्म-दर्शन में भी तत्त्वमीमांसा के अंतर्गत नव तत्त्वों की अवधारणा में पुण्य और पाप का स्वतंत्र तत्त्व के रूप में उल्लेख हुआ है। हमें न केवल श्वेताम्बर आगमों में अपितु दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुंदकुंद के ग्रन्थों में भी नवतत्त्वों की यह अवधारणा प्राप्त होती है। इन नवतत्त्वों को नव पदार्थ या नव अर्थ भी कहा है, किंतु नाम के इस अंतर से इनकी मूलभूत अवधारणा में कोई अंतर नहीं पड़ता है। श्वेताम्बर परम्परा में नवतत्त्वों की अवधारणा का प्राचीनतम उल्लेख उत्तराध्ययन एवं समवायांग में पाया जाता है। पंचास्तिकायसार नामक ग्रन्थ में इन नवतत्त्वों का नव पदार्थ के रूप में उल्लेख हुआ है। नवतत्त्वों की इस अवधारणा के अंतर्गत निम्नांकित नौ तत्त्व माने गए हैं-1. जीव, 2. अजीव, 3. पुण्य, 4. पाप, 5. आस्रव, 6. संवर, 7. बंध, 8. निर्जरा और 9. मोक्ष । यहाँ हम देखते हैं कि नवतत्त्वों की इस सूची में पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्त्व माना गया, किंतु कालान्तर में आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र (लगभग ईसा की तीसरी सदी) में इन नवतत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया और पुण्य तथा पाप को स्वतंत्र तत्त्व न मानकर उन्हें आस्रव का भेद माना ।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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