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________________ XXII पुण्य-पाप तत्त्व दिया। परिणाम स्वरूप पाप के साथ पुण्य की उपादेयता पर प्रश्न चिह्न लगा। इसके बाद आचार्य कुंदकुंद ने और विशेष रूप से उनके टीकाकारों ने पुण्य को बंधन रूप मानकर उसे हेय की कोटि में डाल दिया। इस प्रकार लोकमंगल रूप पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता एक विवादास्पद विषय बन गई। वैसे तो इस विवाद के संकेत सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगम में भी मिलते हैं, जहाँ इस संबंध में मुनि को तटस्थ दृष्टि अपनाने के संकेत हैं। वर्तमान युग में दिगम्बर परम्परा में पूज्य कानजी स्वामी और उनके समर्थक विद्वत् मण्डल की निश्चयनय प्रधान व्याख्याओं के द्वारा इस विवाद को अधिक बल दिया गया। श्वेताम्बर परम्परा में भी आधुनिक युग में यह विवाद मुखर हआ-तेरापंथ परम्परा और अन्य श्वेताम्बर परम्पराओं के बीच। यद्यपि श्रमण जीवन साधना में हिंसा-युक्त लोकमंगल या परोपकार के कार्यों के प्रति विधि-निषेध से ऊपर उठकर मध्यस्थ दृष्टि अपनाने के संकेत सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन जैनागमों में मिलते हैं। फिर भी सामान्यतया दिगम्बर और श्वेताम्बर मनिवर्ग प्रेरणा के रूप में और गृहस्थवर्ग यथार्थ में लोक-कल्याण, समाज-सेवा और परोपकार के कार्यों में रुचि लेता रहा है। चाहे सैद्धान्तिक मान्यता कुछ भी हो, सम्पूर्ण जैन समाज परोपकार और सेवा की इन प्रवृत्तियों में रुचि लेता रहा है। यद्यपि बीसवीं शती के प्रारम्भिक वर्षों में इस प्रश्न को लेकर पक्ष-विपक्ष में कुछ स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। सेवा, दान और परोपकार जैसी पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता के संबंध में प्रकीर्ण संकेत तो प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान युग तक के अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। इस संबंध में विद्वानों द्वारा कुछ लेख भी लिखे गये हैं। मैंने भी ‘स्वहित और लोकहित का प्रश्न', 'सकारात्मक अहिंसा' की भूमिका जैसे कुछ लेख लिखे। फिर भी निष्पक्ष दृष्टि से बिना किसी मत या सम्प्रदाय पर टीका टिप्पणी किये मात्र आगमिक और कर्म-सिद्धांत के श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के गन्थ्रों के आधार पर उनका गहन अनुशीलन करके प्रस्तुत कृति में पुण्य की उपादेयता के संबंध में पूज्य पं. श्री
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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