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________________ 168 - --- पुण्य-पाप तत्त्व शुभ व शुद्धभाव को कर्म क्षय का कारण बताया है और इसी पुस्तक के पृष्ठ 96 पर दी गई उपर्युक्त गाथा में इन्हें पुण्यास्रव का कारण बताया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो पुण्यास्रव के कारण हैं वे ही कर्मक्षय के भी कारण हैं अर्थात् पुण्यास्रव व कर्मक्षय के कारण एक ही हैं। इससे यह भी फलित होता है कि पुण्यास्रव की वृद्धि जितनी अधिक होगी उतना ही कर्मक्षय अधिक होगा। उपचार से कहें तो पुण्यास्रव कर्मक्षय में हेतु है और यह नियम है कि जो कर्मक्षय का हेतु है वह कर्मबंध का कारण नहीं हो सकता। अत: पुण्यास्रव कर्मबंध का कारण नहीं हो सकता। वर्तमान में जैन समाज में सर्वसाधारण में यह धारणा प्रचलित है कि जहाँ आस्रव है, वहाँ कर्म का बंध है। परंतु उनकी यह धारणा पुण्य तत्त्व, आस्रव तत्त्व व बंध तत्त्व की दृष्टि से विचारणीय है, क्योंकि यदि आस्रव मात्र बंध का कारण होता तो आस्रव तत्त्व, बंध तत्त्व का ही एक रूप या भेद होता। ये दोनों तत्त्व अलग-अलग नहीं होते, परंतु कर्म बंध का कारण कषाय और योग इन दोनों को कहा है। योग में भी शुभ योग को कर्मबंध का कारण नहीं कहा है, प्रत्युत शुभयोग को कर्मक्षय का कारण कहा है। क्योंकि शुभयोग कषाय में कमी का द्योतक है, जिससे कर्मों की स्थिति के क्षय रूप कर्मबंध का क्षय नियम से होता है। यह नियम है कि जितना शुभ या शुद्धभाव बढ़ता जायेगा अर्थात् सद्प्रवृत्ति दया, अनुकंपा, त्याग, तप, संयम बढ़ता जायेगा उतना पुण्य का आस्रव बढ़ता जायेगा अर्थात् पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता जायेगा और इस पुण्य के अनुभाग के बढ़ने के साथ पाप-प्रकृतियों की स्थिति भी घटती जायेगी। यह स्मरण रहे कि मिथ्यात्व अवस्था में सद्प्रवृत्तियों से जितना पुण्य प्रकृतियों का आस्रव होता है अर्थात् पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उपार्जन होता है उससे असंख्य-अनंत गुणा पुण्य का अर्जन पुण्यास्रव संयम-त्याग-तप से
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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