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________________ पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग ----- ------- 169 होता है परंतु पुण्य की स्थिति बंध का कारण शुभ या शुद्ध भाव नहीं है, पुण्यासव के समय उनके साथ रहा हुआ कषाय रूप अशुभ भाव बंध का कारण है। उस विद्यमान कषाय रूप पाप से पुण्य की स्थिति का बंध होता है। यह स्थिति बंध ही कर्मबंध है और जहाँ कषाय नहीं है वहाँ स्थिति बंध नहीं है। वहाँ कर्मबंध भी नहीं है। जैसा कि कहा है ण य हिंसामेत्तेण य सावज्जेणावि हिंसओ होइ। सुद्धस्स य संपत्ती अलाउत्ता जिणवरेहिं।। _ -जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 45 अर्थ-जीव केवल हिंसा करने मात्र से हिंसक नहीं होता है। अत: राग-द्वेष (कषाय) से रहित शुद्ध परिणाम वाले जीव के जो कर्मों का आस्रव होता है वह फल रहित है, ऐसा जिनवर ने कहा है। यही बात ओघनियुक्ति टीका, गाथा 755 में कही है न च हिंसामात्रेण सावयेनापि हिंसको भवति। कुतः शुद्धस्य पुरुषस्य कर्मसंप्राप्तिरफला भणिता जिनवरैरिति। इसी तथ्य की पुष्टि जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 94, गाथा 46-47 में भी होती है उच्चालिदम्मि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। आबाधेज्ज कुलिंगो भरेज्ज तं जोगमासेज्ज।।46 ण हि तग्यादणिमित्तो बंधो सुहम्मो वि देसिओ समए। मुच्छा परिग्गहो त्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो।।47 -तथा ओघनियुक्ति टीका, गाथा 748-749 अर्थात् ईर्या समिति युक्त साधु के अपने पैर के रखने पर कोई प्राणी उनके पैर से दब जाय और उसके निमित्त से मर जाय तो उस प्राणी के घात के निमित्त से थोड़ा भी बंध आगम में नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्म
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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