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________________ (20) पुण्य-पाप आसव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्धओ उवजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहि।।52।। -जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 96 अर्थात् अनुकम्पा और शुद्ध उपयोग, ये पुण्यास्रव स्वरूप हैं या पुण्यास्रव के कारण हैं तथा इनसे विपरीत अर्थात् अदया और अशुद्ध उपयोग, ये पापास्रव के कारण हैं। इस प्रकार आस्रव के हेतु समझना चाहिये। उपर्युक्त गाथा में श्री वीरसेनाचार्य ने अनुकंपा और शुद्ध उपयोग इन दोनों को पुण्यास्रव का कारण बताया है। इससे प्रथम तथ्य तो यह फलित होता है कि शुद्ध उपयोग अर्थात् शुद्ध भाव से भी आस्रव होता है और द्वितीय तथ्य यह फलित होता है कि अनुकंपा और शुद्ध उपयोग (शुद्ध भाव) ये दोनों सहचर व सहयोगी हैं अर्थात् जो कार्य उपयोग या शुद्ध भाव से होता है वही कार्य अनुकंपा से भी होता है। तृतीय तथ्य सामने आता है कि पुण्यास्रव का हेतु अशुद्ध भाव या विभाव नहीं है प्रत्युत शुद्ध भाव ही है। अशुद्ध भाव या विभाव से तो पाप का ही आस्रव होता है, पुण्य का नहीं। उपर्युक्त तीनों तथ्य श्रमण संस्कृति व कर्मसिद्धांत के प्राण हैं। श्री वीरसेनाचार्य ने जयधवला की इस प्रथम पुस्तक में पृष्ठ 4 पर
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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