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________________ जीव तत्त्व का स्वरूप 21 से, प्रकारान्तर से कहें, तो मोह की कमी से। दर्शन के विकास से चेतना का विकास होता है एवं विवेक का उदय होता है। बुद्धि का उपयोग भोग भोगने में करना ज्ञान का विकास नहीं है। ज्ञान का विकास सत्य का दर्शन करने से अर्थात् सत्य का अनुभव करने से होता है। यह नियम है कि जितना-जितना सत्य का अनुभव होता जाता है, उतनी-उतनी जड़ता, पराधीनता, चिन्ता, खिन्नता छूटती जाती है। निश्चिन्तता, निर्भयता, चेतनता, स्वाधीनता, प्रसन्नता बढ़ती जाती है। यही जीवन है। वर्शन-गुण निर्विकल्पता की उपलब्धियाँ 1. लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान, अनुकूलता-प्रतिकूलता में हर्ष-शोक न करना समता है। समता में निर्विकल्पता होती है। निर्विकल्पता ही दर्शन है। निर्विकल्पता से ही चिन्मयता, जागरूकता आती है, अर्थात् स्व-संवेदन से शरीर में स्थित चैतन्य के प्रदेशों की अनुभूति होती है। यही 'दर्शन' गुण या उपयोग का प्रकट होना है, दर्शनावरण का हटना है, क्षयोपशम है। निर्विकल्पता है चित्त का शान्त होना। शान्त चित्त में ही विचार का, __ ज्ञान का उदय होता है। यह ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है। राग-द्वेष न करने से निर्विकल्पता आती है। अत: राग-द्वेष या मोह के हटने या घटने से निर्विकल्पता आने से स्व-संवदेन रूप 'दर्शन' (गुण या उपयोग) तथा विचार का उदय रूप 'ज्ञान' (गुण या उपयोग) का प्रकटीकरण होता है। 4. निर्विकल्पता कामना रहित होने से आती है। कामना रहित होने से अभाव का अभाव होता है अर्थात् ऐश्वर्य प्रकट होता है, यही लाभान्तराय का क्षयोपशम है। लं
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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