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________________ 20 जीव- अजीव तत्त्व एवं द्रव्य नोट- सिक्के आदि मुद्रा देकर वस्तुएँ खरीदते हैं। दुकान पर ग्राहक अधिक आने पर कई दुकानदार भोजन छोड़ देते हैं । मृत्यु आने पर धन, संपत्ति, घर-परिवार, शरीर को छोड़ते हैं । परन्तु यह छोड़ना त्याग नहीं है। त्याग है- सुख-भोग को दु:खद जानकर भोग्य पदार्थों की कामना-ममता का त्याग करना और साथ ही वस्तुओं का भी त्याग करना। ऐसे ज्ञानपूर्वक त्याग से आविर्भूत निर्विकल्प बोध ही सच्ची निर्विकल्पता है। इसी का महत्त्व है। यही वास्तव में कल्याणकारी है। इसी में प्राणी का हित है। दर्शन गुण का फल : चेतना का विकास जीवन में मृत्यु का दर्शन कर लें तो अमरत्व की अनुभूति हो जाये । संयोग में वियोग का दर्शन कर लें, तो नित्य योग की अनुभूति हो जाये । विषय - - सुख में दुःख का अनुभव (दर्शन) कर लें, तो अनवरत अक्षय, अखण्ड अनन्त सुख की उपलब्धि हो जाये । विषयभोग में रोग (विकार) का दर्शन कर लें, तो निर्विकारत्व की, आरोग्य की, स्वस्थता की उपलब्धि हो जाए। अमरत्व, निर्विकारत्व, अक्षय, अखण्ड, अनन्त सुख की अनुभूति होना ही शरीर, संसार व समस्त दुःखों से मुक्त होना है। यहाँ 'दर्शन' शब्द का अर्थ देखना नहीं है । प्रत्युत संवेदनशीलता का अनुभव करना है। संवेदनशीलता का अनुभव शान्तचित्त में ही होता है । चित्त शान्त निर्विकल्पता से होता है । निर्विकल्पता कामना के अभाव से, चाह रहित होने से ही होती है। शान्तचित्त में ही विचार या विवेक का उदय होता है। इसीलिए जैनागम में दर्शन के विकास के साथ ज्ञान के विकास की बात कही है। जितना दर्शन का विकास होता है, उतनी ही संवेदनशीलता बढ़ती है। अर्थात् चेतना का विकास होता है। दर्शन का विकास होता है, कामना (चाह की इच्छा) के अर्थात् आर्त्तध्यान के त्याग
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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