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________________ 8. जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य निर्विकल्पता से निज रस का आस्वादन-अनुभव होता है, यह भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। निज रस-आत्मानुभव का निरन्तर बना रहना उपभोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। निर्विकल्पता वहीं संभव है जहाँ कर्तृत्वभाव नहीं है अर्थात् जहाँ अप्रयत्न है एवं अक्रियता है। अप्रयत्न होना ही असमर्थता का अन्त करना है। यह वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। निर्विकल्प साधक को अपने लिए संसार से कुछ नहीं चाहिये। उसका सारा जीवन जगत् के हित या कल्याण के लिए होता है। उसके हृदय में करूणा का सागर उमड़ता रहता है, यही दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय है। निर्विकल्पता निर्दोषता की द्योतक है। यही चारित्र मोहनीय का उपशम या क्षय रूप चारित्र है। निर्विकल्पता में 'यथाभूत तथागत' का अर्थात् जो जैसा है, उसे वैसा ही अनुभव करने रूप (बोध, विज्ञान) सत्य का साक्षात्कार होता है। यही सम्यग्दर्शन है। तात्पर्य यह है कि निर्विकल्पता या समता से चैतन्य के नव गुणों या नौ उपलब्धियों का प्रकटीकरण होता है। यही नव क्षायिकभाव, चेतना के मुख्य गुण हैं। निर्विकल्पता या समता (समभाव) ही सामायिक है। यही ध्यान है, यही साधना है, यही मुक्ति का मार्ग है। कर्म-सिद्धान्तानुसार जितनी-जितनी निर्विकल्पता स्थायी होती __ जाती है, उतनी-उतनी समता पुष्ट होती जाती है। समता में स्थित 11.
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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