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________________ नवम अध्ययन में चार उद्देशकों से दी गई शिक्षा का यह भी महत्त्व हो सकता है कि साधक पूर्वोक्त क्रियाओं का भय, लज्जा या राजकीय बेगार भाव से नहीं, किन्तु आत्मिक सद्भावना और भक्तिपूर्वक आचरण करे । चार समाधियों में यह स्पष्ट कहा गया है कि (1) साधक इस लोक के धन-वैभव के लिये, आचार पालन नहीं करे, (2) परलोक में स्वर्गादि सुखों के लिये भी नहीं करे, (3) महिमा - पूजा के लिये भी नहीं करे, किन्तु एकान्त कर्म-निर्जरा और आज्ञापालन की भावना से आचार धर्म का पालन करे । दसवें अध्ययन में शास्त्रगत समस्त विषयों का उपसंहार करते हुए 21 गाथाओं से यह बताया गया है कि भिक्षु कौन होता है ? अन्त में दो चूलिका अध्ययन हैं। उनके लिये कहा जाता है कि आर्या यक्षा ने सीमंधर स्वामी के मुख से साक्षात् सुनकर इनको प्राप्त किया और संघ के निवेदन पर ये दोनों अध्ययन संघ को समर्पित किये। सभी अध्ययन मुमुक्षु के लिये पठनीय, मननीय एवं विनयपूर्वक आचरणीय हैं। रचना एवं निर्यूहण दशवैकालिक सूत्र की रचना अंग - शास्त्रों की तरह गणधरकृत नहीं, किन्तु स्थविरकृत है, इसलिये इसकी गणना अंग बाह्य आगम में की जाती है। निर्युक्तिकार के अनुसार चतुर्दश पूर्वों से दशवैकालिक सूत्र का आर्य शय्यंभव के द्वारा निर्यूहण किया गया है । दृढ़ परम्परा है कि जब शय्यंभव भट्ट आर्य प्रभवस्वामी के पास मुनि धर्म में दीक्षित हुए, तब उनकी धर्मपत्नी सगर्भा थी, पारिवारिक लोगों के द्वारा पूछने पर कि तेरे उदर में क्या कुछ है ? उत्तर में उसने सकुचाते हुए कहा - 'मनख ।' समय पाकर जन्म के पश्चात् बालक का नाम माता की उक्ति के आधार पर 'मनख' रखा गया। वही बालक लगभग 8 वर्ष का हुआ, तब उसने माता से पूछा कि मेरे पिता कहाँ हैं ? माता ने बालक से कहा कि तेरे पिता तेरे जन्म काल से ही जैन मुनि बन गये हैं और वे चम्पानगरी के आस-पास विचरण कर रहे हैं। स्नेहवश बालक ने अपने खेल छोड़कर, पिता से मिलने को चम्पानगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। आर्य शय्यंभव शौच को निकले हुए थे, उस समय बालक उधर आया और मुनि को नमस्कार किया। मुनि ने बालक से पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? उत्तर में बालक ने कहा-“मैं शय्यंभव भट्ट का पुत्र हूँ और राजगृही नगरी से अपने पिता जो दीक्षित हो गये हैं, उनसे मिलने आया हूँ।” आर्य शय्यंभव बालक की बात से मन ही मन प्रसन्न हुए, बालक ने पूछा'क्या आप मेरे पिता मुनिश्री को जानते हैं ?' आर्य शय्यंभव ने कहा- “हाँ, मैं जानता हूँ, हम और वे एक हैं।” बालक ने कहा-“हे भिक्षु ! मुझे उन्हीं के पास दीक्षित होना है।” आर्य शय्यंभव ने उपाश्रय में आकर उसे मुनि दीक्षा प्रदान की और उसके साथ ही सोचा कि इसका जीवन (आयुष्य) काल कितना शेष है । पूर्वश्रुत में उपयोग लगाने से ज्ञात हुआ कि नवदीक्षित मुनि का आयुकाल मात्र छः मास का है। इतने अल्पकाल में मुनि अपनी सफल साधना से आत्महित कर सके, ऐसा ज्ञान दिया जाय तो अच्छा । इस भावना से आर्य शय्यंभव
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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