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________________ आठवाँ अध्ययन आचार प्रणिधि है। इसमें अहिंसा आदि व्रत और आहार-शुद्धि एवं वचन-शुद्धि आदि आचारों का सम्यक् परिपालन करने के लिये जिन बातों की आवश्यकता है, उनको ध्यान में रखकर इस अध्ययन में अहिंसा की रक्षा के लिये सदा अप्रमत्त भाव से यतना करने की शिक्षा दी गई है और कहा गया है कि साधक उच्चारादि उत्सर्ग करने की वस्तुओं को निर्दोष स्थान देखकर परिष्ठापन करे । बीसवीं गाथा में कहा गया है कि साधु कान से बहुत सुनता और आँख से बहुत देखता है, किन्तु उसे सब सुनी, देखी बातें इधर-उधर कहना उचित नहीं है। 21-22वीं गाथा में साधक को वचन सम्बन्धी विवेक की शिक्षा दी गई है तथा कहा है कि वह देखी-सुनी बात को जो दूसरों के लिये पीड़ा कारक हो, नहीं बोले। 23-25 तक की गाथाओं में कहा गया है कि भोजन में आसक्त होकर अप्रासुक आहार नहीं करे। सदोष आहार का वर्जन करे । कभी विहार मार्ग में अलाभ की आशंका से आहार का संग्रह न रखे । यथा लाभ में सन्तोष करने वाला मुनि कभी किसी के अप्रिय कहने पर क्रुद्ध नहीं होवे। 26वीं गाथा से 32 तक में अनुकूल, प्रतिकूल परीषह शान्तभाव से सहन करे और सद्भावपूर्वक देह की सुकुमारता को त्याग दे। सूर्योदय से पूर्व आहार आदि को मन से भी नहीं चाहे। अपने द्वारा पर का तिरस्कार और अपनी स्तुति आदि नहीं करे। कभी कोई गलती हो जाये तो उसको गुरुजनों के समक्ष बिना छुपाये प्रगट करे। 33वीं गाथा में गुरुजनों के वचन को खाली नहीं जाने दे, इस प्रकार के विविध शिक्षा-वचनों से सूत्रकार ने इस अध्ययन में आचार की विशेष शुद्धि और तेजस्विता को बढ़ाने के लिये बहुमूल्य शिक्षाएँ प्रदान की हैं। उपर्युक्त आचार-संहिता और संयम-शोधक नियमों का पालन वही साधक सम्यक् रूप से कर सकेगा, जिसको जिनराज की वाणी पर भक्ति और उसके प्रति बहुमान है। विनयहीन साधक जिन-वचनों को सुनकर और जानकर भी सम्यक् आचरण नहीं कर सकेगा। जितना करेगा उसे भी वह भार मानकर ही करेगा, अत: क्रिया में आदर आवे और साधक लौकिक कामनाओं से दूर रहकर आचार-धर्म का यथावत् पालन करे, एतदर्थ नवम अध्ययन के 4 उद्देशकों में विनय की शिक्षा दी गई है। पहले उद्देशक में अविनय और अभक्ति का अशुभ फल और उससे होने वाली आत्म-गुण की हानि को नौ गाथाओं से बताकर कहा गया है कि जिसके पास धर्म-पद का शिक्षण प्राप्त करे, उसके प्रति तन, मन और वाणी से विनय का प्रसाधन करे। दूसरे उद्देशक में विनय को धर्म का मूल बताकर अविनय से दुःख, अकीर्ति और आशातना होती है और विनय से सुख, सुकीर्ति और भक्ति होती है, विनयवान इस दुष्कर संसारसागर को पार-कर उत्तम गति को प्राप्त करता है, यह अर्थ बताया गया है। तीसरे उद्देशक में पन्द्रह गाथाओं से बताया गया है कि आचार्य की विनय-भक्ति करने वाले शिष्य पूजक से पूज्य हो जाते हैं, इसलिये विनय का समाराधन करे। चौथे उद्देशक में विनय, श्रुत, तप और आचार इन चार प्रकार के समाधि-स्थानों से साधक जन्म-मरण से मुक्त होकर शाश्वत सिद्ध पद का अधिकारी होता अथवा महर्द्धिक देव होता है, ऐसा कहा गया है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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