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________________ 24] [दशवैकालिक सूत्र धोना सर्व स्नान है। स्नान का वर्जन मुख्य रूप से अहिंसा को लक्ष्य में रखकर किया गया है। छठे अध्ययन में कहा गया है कि रोगी हो अथवा निरोगी, जो भी साधक स्नान की इच्छा करता है वह आचार से फिसल जाता है और उसका जीवन संयमहीन हो जाता है। इसलिए साधक उष्ण अथवा शीत किसी भी जल से स्नान नहीं करे । संयमियों का यह घोर अस्नान व्रत जीवन भर के लिये होता है। हिंसा के साथ स्नान, विभूषा का कारण होने से भी वर्जनीय कहा गया है। महावीर के धर्ममार्ग में अहिंसा को जितनी प्रधानता दी गई है, उतनी देह-शुद्धि को नहीं। उन्होंने देह-शुद्धि में अशुचि टालने और लोगों में दुगुच्छा न हो, इस दृष्टि से हाथ-पैर-वस्त्र आदि धोने की थोड़ी सीमित छूट दी है। स्नान के लिए इसी सूत्र में कहा गया है कि भूमि की दरारों में जो सूक्ष्म, त्रस एवं स्थावर जीव पाये जाते हैं, स्नान करते समय वे स्नान के पानी से पीड़ित होते हैं, इसलिए भी साधु स्नान नहीं करते । बौद्ध या वैदिक परम्परा में जैसे साधु को स्नान की छूट है, वैसे जैन साधु के लिए कोई छूट नहीं है। 7. गंधमल्ले (गन्धमाल्य)-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ और फूल माला का आसेवन साधु के लिये निषिद्ध है। इनके लिये वनस्पतिकाय के जीवों की विराधना होती है। वनस्पति और त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए इन पदार्थों का लेना अग्राह्य कहा है। इसमें विभूषा और रागवृद्धि से बचना भी शास्त्र का एक हेतु रहा। 8. वीयणे (वीजन)-पंखे आदि से शरीर या उष्ण भोजनादि को हवा करना दोष है। पंखे आदि की हवा से वायुकाय के असंख्य जीवों की हिंसा और सूक्ष्म त्रस जीवों का भी वध सम्भव है। इसलिए साधु मुँह से फूंक भी नहीं देता, खुले मुख नहीं बोलता, छींक आदि के समय भी मुख पर हाथ रखता है। 9. सन्निही (सन्निधि)-तेल, घृत आदि पदार्थों का संचय करना, रात में रखना सन्निधि नाम का दोष है। संचय करना साधु के अपरिग्रह व्रत के प्रतिकूल माना गया है । षष्ठ अध्ययन में कहा है कि “विडमुब्भेइमं लोणं, तिलं, सप्पिं च फाणियं ।" ज्ञात पुत्र महावीर की आज्ञा में रमण करने वाले साधु विड, लवण, तेल, घृत, गुड़ आदि को रात्रि में पास में नहीं रखते। क्योंकि यह भी लोभ का एक आंशिक कारणभूत है। जो संचय करना चाहता है वह गृहस्थ है, प्रव्रजित साधु नहीं। जैन साधु का नियम है कि साधु अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने पर, वात, पित्त, कफ के प्रकोप में शान्ति नहीं होने पर एवं जीवनान्तकारी रोग की स्थिति बनने पर भी उससे बचने के लिये औषध-भैषज्य आदि का संचय नहीं करे। 10. गिहिमत्ते (गृहीभाजन)-गृहस्थ के बरतन में आहार-सेवन करना दोष है । इसके आसेवन से पूर्वकर्म और पश्चात्कर्म आदि दोष लगने की संभावना है। भाजनों को धोने में सचित्त जल की विराधना और इधर-इधर पानी गिराने से त्रस जीवों की हिंसा सम्भव है। इसलिये गृही-भाजन में साधु के लिए आहार करना अकल्प्य है। 11. रायपिंडे (राजपिंड)-राजा लेने वाले को जो चाहे दे, उस पिण्ड को किमिच्छक-राजपिण्ड कहते हैं। चूर्णिकार ने दोनों को एक माना है। किन्तु एक परम्परा राजपिण्ड और किमिच्छक को अलग-अलग मानती है। राजपिण्ड में मूर्धाभिषिक्त राजा का भोजन लेना साधु के लिए निषिद्ध है। साधु के लिए राजपिण्ड ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। राजपिण्ड से रागवृद्धि और रस-लोलुपीपन बढ़ने की सम्भावना रहती है। वह कामोत्तेजक भी होता है, इसलिये साधु के लिये अनाचीर्ण माना गया है। 12. किमिच्छए (किमिच्छक)-इसका अर्थ उन दानशालाओं से लिया गया है, जहाँ इच्छानुसार वस्तु की प्राप्ति होती हो । साधु-साध्वियों के लिये वहाँ से आहारादि लेना भी अग्राह्य कहा है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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