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________________ [25 तृतीय अध्ययन - टिप्पणी] 13. संवाहणा-तैल आदि से बिना कारण शरीर का मर्दन करना संवाहन कहा गया है। वह अस्थि, मांस, त्वचा और रोम के लिए सुखदायी होता है। साधु, देहासक्ति से बचने के लिये और प्रमाद-वृद्धि न हो, इसलिए मर्दन को अकल्पनीय मानते हैं। 14. दंतपहोयणाए (दन्त प्रधावन)-नीम, बबूल, काष्ठ आदि के दातुन से दाँत का मैल साफ करना दन्त प्रधावन है। सूत्र कृतांग सूत्र में दातुन से दाँतों के प्रक्षाल का निषेध किया गया है। निशीथ सूत्र में कहा गया है कि-साधु के लिए विभूषा निमित्त दाँत घिसने तथा प्रक्षालन करने का निषेध है। वैदिक परम्परा में भी दन्तधावन पर्व तिथियों में वर्जित माना गया है। जैसा कि लघुहारित और नृसिंह पुराण में लिखा हैप्रतिपत्-पर्व-षष्ठीसु, नवम्यां, चैव सत्तमः, ___ दन्तानां काष्ठसंयोगात्, दहत्यासप्तमं कुलम् । अभावे दन्तकाष्ठानां प्रतिषिद्धदिनेषु च, अपां द्वादशगण्डूषैर्मुखशुद्धिं समाचरेत् ।। उपर्युक्त श्लोकों में प्रतिपदा आदि पर्व तिथियों में दन्तधावन वर्जित किया गया है। श्राद्धदिन, यज्ञदिन, नियमदिन, उपवास या व्रत के दिन में भी इसका निषेध किया गया है। इससे प्रमाणित होता है कि वैदिक परम्परा में भी धार्मिक क्रिया के रूप में दन्त प्रधावन का विधान नहीं है। 15. संपुच्छणा-अपने अंग-उपांग की सुन्दरता के लिये दूसरे से पूछना अथवा गृहस्थों से आरम्भ-समारम्भ सम्बन्धी सावध प्रश्न पूछना, रोगी गृहस्थ से कुशल पूछना, जैन-श्रमण के लिए अकल्पनीय है। आवश्यकता से कभी किसी से तपस्या एवं बीमारी की स्थिति में कुछ पूछना हो तो निरवद्य भाषा में पूछना चाहिये। संपुच्छणा से गृहिसंस्तव को बढ़ावा मिलता है। इसलिये इसका निषेध किया गया है। संपुच्छणा का दूसरा अर्थ शरीर के रज-मैल आदि साफ करना है। इसलिये भी विभूषा-त्यागी के लिए यह अनाचीर्ण माना गया है। ___16. देह पलोयणा (देह-प्रलोकन)-दर्पण में रूप देखना अथवा दर्पण आदि में शरीर को देखना ममत्व जगाने का कारण हो सकता है। निशीथ सूत्र में साधु द्वारा दर्पण, पानी, तलवार, तैल आदि में रूप देखने का प्रायश्चित्त बतलाया है। 17-18. अट्ठावए य नालीए (अष्टापद और नालिका)- जुआ, आज का शतरंज आदि खेल, जिनमें हार-जीत का दाँव लगाया जाता है, नालिका-पासों के द्वारा जुआ खेलना अथवा इच्छानुकूल पासा डालकर खेलना दोष है। 19. छत्तस्स धारणट्ठाए (छत्र-धारण)-बिना खास कारण के छत्र धारण करना अनाचीर्ण है। वर्षा अथवा धूप से बचने के लिए छत्र धारण नहीं करना, महिमा बढ़ाने के लिए महन्त की तरह छत्र नहीं लगाना, यह योगी की निशानी है। जैन श्रमण पूर्ण अपरिग्रही है। उसके लिये ये राजसी साधन, अनाचीर्ण माने गये हैं। केवल गाढ़ रोग की स्थिति में स्थविरों के लिए अपवाद का कथन मिलता है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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