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________________ तृतीय अध्ययन की टिप्पणी दूसरे श्रामण्य-पूर्विका अध्ययन में साधक को अधीरता छोड़कर संयम में धैर्य धारण करने की शिक्षा दी गई है। वह धैर्य आचार में लाभकारी होता है। अतः तृतीय अध्ययन में आचार का कथन किया गया है। इस अध्ययन का नाम खुडियायार कहा (क्षुल्लकाचार कथा) है। इसमें साधकों के संक्षिप्त आचार का कथन किया गया है। आचार का पालन अनाचार के त्याग से ही होता है। अत: महर्षियों द्वारा वर्जित कुछ कर्म आज के साधक भी त्यागें, ऐसी शिक्षा दी गई है। वर्जनीय कर्म को अनाचीर्ण कहा है। मूल में उनकी संख्या का उल्लेख नहीं है, किन्तु चूर्णि और टीका में अनाचीर्ण 52 और कहीं 53 बताये गये जो निम्न हैं: 1. औद्देशिक-श्रमण वर्ग के लिए बनाया गया आहार आदि लेना औद्देशिक दोष है। 2. क्रीत-कृत-साधु-श्रमण के लिये खरीदकर दिया गया आहार आदि लेना क्रीत-कृत दोष है। 3. नियाग-नित्य आमन्त्रित पिण्ड लेना साधु-श्रमण का तीसरा दोष है। 4. अभिहत-साधु को देने के लिए अपने घर या गाँव आदि से सामने लायी हुई आहार आदि वस्तु लेना अभिहृत दोष है। निशीथसूत्र 14.4 में अभिहडे अर्थात् सम्मुख लाए आहार आदि को लेने का प्रायश्चित्त है। इसका तात्पर्य है कि साधु के लिए सम्मुख लाया हुआ आहार आदि नहीं कल्पता है । दशवैकालिक 5.1.24 में 'अइभूमिं न गच्छेज्जा' कथन से यह स्पष्ट है कि वह आहार दूर से लाया हुआ नहीं होना चाहिए । रसोई आदि के बाहर खड़े रहने पर दिखती हुई सामग्री को यतना सहित लाकर बहराने पर ली जा सकती है। उसकी मर्यादा पिण्डनियुक्ति में 100 हाथ बतायी गई है तो निशीथसूत्र 2.15 के अनुसार तीन घर अर्थात् सम्मुख दिखते हुए तीन कमरे तक से लाए हुए आहार आदि को कल्पनीय बताया है। औद्देशिक से अभिहृत तक के आहार आदि का विषय अन्यत्र भी कई सूत्रों में उपलब्ध होता है। इसका मुख्य हेतु सावध का अनुमोदन और साधु जीवन में परावलम्बनता का प्रवेश न हो, ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि महावीर के धर्म-मार्ग में अहिंसा का इतना सूक्ष्म विचार है कि जहाँ सूक्ष्म हिंसा भी मालूम हो, वैसे आहार आदि से बचने का विधान किया गया है। 5. राइभत्ते-रात्रि भक्त के चार प्रकार हैं-(1) दिन में लाकर दूसरे दिन खाना । (2) दिन में लाकर रात में खाना । (3) रात में लाकर दिन में खाना । (4) रात में लाकर रात में खाना । साधु के लिए इन चारों प्रकारों का रात्रि भोजन त्याज्य है। रात्रि भोजन-त्याग श्रमण निर्ग्रन्थ का छठा व्रत है, इसलिये भी रात्रि भोजन आचार से प्रतिकूल होने के कारण दोषपूर्ण माना गया है। 6. सिणाणे-अर्थात् स्नान भी साधक के लिए अनाचीर्ण है। वह दो प्रकार का है-देश स्नान और सर्व स्नान । शौच या आहारादि के लेप के अतिरिक्त अंग-प्रत्यंग को धोना देश स्नान और सिर से लेकर पैर तक पूरे शरीर का
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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