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________________ 18] [दशवैकालिक सूत्र अर्थात् अग्नि अतिशय तीक्ष्ण शस्त्र है। अन्य शस्त्र एक ओर से ही काटते हैं, पर अग्नि वह चाहे कंडे की हो या बिजली की, चारों ओर से जलाती है। अत: इनका मुनि के लिए सहेतुक भी आचरण वर्जित कहा गया है। सिज्जायर-पिंडं च, आसंदी पलियंकए। गिहतर निसिज्जा" य, गायस्सुवट्टणाणि” य ।।5।। हिन्दी पद्यानुवाद शय्यातर के घर की भिक्षा, कुर्सी पलंग पर उपवेशन। बैठना गृहस्थ के घर में जा, तन पर मलना सुरभित उबटन ।। अन्वयार्थ-सिज्जायर पिंडं = शय्या दाता के यहाँ से आहारादि लेना । च आसंदी = और बेंत आदि से बने कुर्सी या मूढे आदि पर बैठना । पलियंकए = पलंग का उपयोग करना, उस पर बैठना, सोना । गिहतर निसिज्जा (निसज्जा) य = गृहस्थ के घर में या दो घरों के बीच में बैठना । य = और । गायस्सुवट्टणाणि = शरीर पर उबटन करना। भावार्थ-जिसके घर में रात्रिवास किया जाय उसके यहाँ का अशनादि भी जैन साधु स्वीकार नहीं करता तथा व्रत की शुद्धि के लिये खाट, पलंग, सुखासन, गृहस्थ के घर में बैठना और तन का मैल उतारना अथवा बिना कारण उद्वर्तन (उबटन) करना भी वर्जित कहा गया है। गिहिणो वेयावडियं, जाय आजीव-वत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं", आउरस्सरणाणि' य ।।6।। हिन्दी पद्यानुवाद करना गृहस्थ जन की सेवा, कुल जाति बता भिक्षा अर्जन। अधपकी सचित्त वस्तु सेवन, आतुर हो करना भोग स्मरण ।। अन्वयार्थ-गिहिणो = गृहस्थ की। वेयावडियं (वेआवडियं) = वैयावच्च (सेवा) करना या वैयावच्च कराना । य = और । जा = जो। आजीव-वत्तिया = कुल, जाति आदि बताकर जीविका चलाना । तत्तानिव्वुडभोइत्तं = अच्छी तरह प्रासुक नहीं हो ऐसे मिश्र जलादि का उपयोग करना । य = और । आउरस्सरणाणि = रोग आदि कष्ट के समय कुटुम्बी जन का या पूर्व में भोगे हुए पदार्थों का स्मरण करना। भावार्थ-जैन निर्ग्रन्थ धैर्यवान् और निस्पृह होता है । वह गृहस्थ से सेवा नहीं लेता, क्योंकि उसका जीवन स्वाश्रयी है। अपने कुल आदि का परिचय देकर भिक्षा नहीं लेता, मिश्रजल का उपयोग और रुग्णावस्था में परिजनों का स्मरण भी नहीं करता। क्योंकि उसको राग विजय करना है।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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