SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन] [17 भावार्थ-जैन श्रमण सम्पूर्ण आरम्भ का त्यागी होता है, अत: औद्देशिक आदि आहार और स्नान, गंध, माला और बीजने का उपयोग उनके लिये अनाचीर्ण है (सेवन योग्य नहीं है) । सन्निही" गिहिमत्ते" य, रायपिंडे" किमिच्छए" । संवाहणा" दंत पहोयणा" य, संपुच्छणा" देह पलोयणा" य ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद सन्निधि गृहस्थ-पात्र-भोजन, नृप - पिण्ड पूछकर दिया अशन । संवाहन और दंत प्रधावन, संपृच्छन दर्पण मुख दर्शन ।। अन्वयार्थ - सन्निही = घृत, तेल आदि का संग्रह रखना । गिहिमत्ते य = और गृहस्थ के पात्र थाल-कटोरे आदि भाजनों ( बर्तनों) में आहार करना । रायपिंडे = राजपिंड का सेवन करना । किमिच्छए = जहाँ पूछकर इच्छानुसार दिया जाय वैसी दानशाला से आहारादि लेना। संवाहणा = मर्दन करना (मालिश करना) । दंत पहोयणा य = और दाँतों को धोना । देह पलोयणा य = और दर्पण आदि में मुख देखना । संपुच्छणा = गृहस्थ से सावद्य प्रश्न करना या उसकी कुशल क्षेम पूछना । भावार्थ-निर्ग्रन्थ मुनि असंग्रही और शोभा विभूषा के त्यागी होते हैं, उनके लिये 'बासी रहे न कुत्ता खाय' वाली कहावत सार्थक होती है । वे रात्रि के समय अशनादि कोई वस्तु पास में नहीं रखते। शोभा के लिये शरीर का मर्दन और दन्त प्रधावन आदि भी नहीं करते हैं। भोजन के कण दाँतों में रहकर सड़ान उत्पन्न नहीं करे, इसलिये अंगुली से साफ करते हैं । हिन्दी पद्यानुवाद अट्ठावए" य नालीए, छत्तस्स" य धारणट्ठाए । तेगिच्छं20 पाहणा पाए, 21 समारंभं च जोड़णो 22 ।।4।। शतरंज जूआ क्रीडन करना, एवं सिर छत्ता धरना । रोगोपचार, जूता धारण, पावक का संचालन करना ।। अन्वयार्थ-अट्ठावए = अष्टापाद-जुआ । य = और। नालीए = पासों से खेल खेलना । छत्तस्स य धारणट्ठाए = और बिना कारण छत्र धारण करना । तेगिच्छं = सावद्य चिकित्सा करना । पाहणा पाए = पैरों में चप्पल, जूता आदि पहनना । समारंभं च जोइणे = और अग्नि का आरम्भ करना, बिजली जलाना आदि । भावार्थ- जैन साधु प्रमाद और आराम से दूर रहता है। किसी प्रकार की द्यूतक्रीड़ा, छत्र धारण, सावद्य चिकित्सा, पादत्राण और अग्नि के आरम्भ का उपयोग मुनि के लिए वर्जित है I अन्यत्र भी कहा है-“अगणि-सत्थं जहा सुनिसियं” तथा “तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं"
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy