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________________ 6] [दशवैकालिक सूत्र मन, वचन और काया के प्रमत्त व्यापार हिंसा के प्रमुख कारण हैं। जैसे-निषेध पक्ष में प्राणों का अतिपात नहीं करना अहिंसा है, इसी प्रकार हिंसा से विपरीत रक्षण रूप अहिंसा इसका विधि पक्ष है। आचारांग सूत्र के सम्यक्त्व अध्ययन और सूत्रकृतांग सूत्र में धर्म का रूप प्रस्तुत करते हुए इसी बात को कहा है कि किसी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना, उन्हें परिताप नहीं देना, पराधीन-बन्धन में नहीं डालना, यही शुद्ध, शाश्वत धर्म है। __ जैसे कोई मुझे बेंत, हड्डी, मुष्टि आदि से मारे-पीटे, ताड़ना करे, तर्जना करे, व्याकुल करे, खिन्न करे और प्राण हरण करे तो मुझे दुःख होता है, जैसे मृत्यु से लेकर, रोम उखाड़ने तक के व्यवहार से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को दुःख होता है, अतः उन्हें नहीं मारना चाहिये, उन पर अनुशासन नहीं करना चाहिये, उन्हें उद्विग्न नहीं करना चाहिए, यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। इस प्रकार धर्म का प्राण अहिंसा है। इसीलिए प्रभु ने कहा है-एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसई किंचणं (सूत्रकृतांग) ज्ञान पाने का सार यही है कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं की जाय। 2.संयम-अहिंसा की व्यवस्थित आराधना के लिए संयम की आवश्यकता होती है। असंयमी अहिंसक नहीं हो सकता, अत: अहिंसा के साथ धर्म का दूसरा अंग संयम बतलाया गया है। संयम का अर्थ है-अपने आपको हिंसा आदि कर्म-बन्ध के कारणों से अच्छी तरह उपरत अर्थात् अलग रखना। जैसा कि आचार्यों ने कहा है-'आस्रवद्वारोपरमः संयमः।' अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँच द्वारों से कर्म आते हैं, इन द्वारों का रोधन करना यानी उनको रोक देना, उनसे उपरत होना श्रेष्ठ संयम है। संयम का व्यापक अर्थ अन्य प्रकार से भी किया गया है, जैसे कि-हिंसा आदि पाँच आश्रव, पंचेन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय और पाँच समिति-तीन गुप्ति का पालन, इस प्रकार इसके सत्रह प्रकार भी कहे गये हैं। उक्तं च “पंचास्रवविरमणं, पंचेन्द्रिय-निग्रह, कषायजय-दण्डत्रय-विरतिश्च संयमः सप्तदशभेदः।" अर्थात् हिंसा आदि 5 आस्रवों से विरति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय, मन-वचन एवं काय दण्ड से विरमण-ये संयम के 17 भेद हैं। समवायांग सूत्र में संयम के सत्रह भेद अलग तरह से बताये गये हैं-पृथ्वीकाय-संयम 1, अपकाय-संयम 2, तेजस्काय-संयम 3, वायुकाय-संयम 4, वनस्पतिकाय-संयम 5, बेइन्द्रिय-संयम 6, तेइन्द्रिय-संयम 7, चउरिन्द्रियसंयम 8, पंचेन्द्रिय-संयम 9, अजीवकाय-संयम 10, प्रेक्षा-संयम 11, उत्प्रेक्षा-संयम 12, अपहृत-संयम 13, अप्रमार्जना-संयम 14, मन-संयम 15, वचन-संयम 16 और काय-संयम 17। 3. तवो (तप)-अहिंसा व संयम जैसे धर्म के अंग हैं, उसी प्रकार तप भी धर्म का विशिष्ट अंग है। संयम से नये कर्मों का आगमन रोका जाता है; जबकि तप के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को क्षीण किया जाता है । तप का अर्थ है-कर्मों को तपाने की क्रिया। जो अष्टविध कर्म-ग्रन्थियों को तपाकर नष्ट करता है, उसे तप कहते हैं। जैसा कि चूर्णिकार ने कहा है "तवो णाम तावयति, उ ते परममंगल पइन्ना।"
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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