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________________ [7 प्रथम अध्ययन - टिप्पणी] अज्ञान तप जहाँ शरीर मात्र को तपाता है; वहाँ वीतराग प्ररूपित सम्यक् तप कर्मों को तपाकर आत्मा से उसी प्रकार अलग कर देता है, जिस प्रकार अग्नि का ताप घी के मैल को अलग कर देता है। तप बारह प्रकार के हैं (1) अनशन-एक दिन से लेकर छ: मास तक अन्न-जल आदि का त्याग करना या आजीवन आहार मात्र का त्याग करना । (2) ऊनोदरी-आहार की मात्रा कम करना, क्रोधादि घटाना, वस्त्र-पात्रादि उपकरण कम रखना आदि । (3) भिक्षाचरी-भिक्षाचर्या अथवा वृत्ति संक्षेप-अभिग्रह करना या भोजन के पदार्थों में संकोच करना । (4) रसपरित्याग-दूध, दही, मिष्ठान्न आदि रसों का त्याग करना । (5) कायक्लेश-आसन या लुंचन आदि से शरीर को कष्ट देना । (6) प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय, कषाय व योगों को अशुभ प्रवृत्ति करने से रोकना और कुशल मन, वाणी आदि की ओर प्रवृत्ति करना । ये छ: बाह्य तप हैं। (7) प्रायश्चित्त-आत्म-शुद्धि के लिए व्रत आदि में लगे दोषों की आलोचना करना, गुरु प्रदत्त प्रायश्चित्त स्वीकार करना । (8) विनय-देव, गुरु, धर्मबन्धु, धर्म क्रिया का विनय करना, सम्यक् क्रिया से श्रद्धा का आराधन करना । (9) वैयावृत्त्य-साधु, साध्वी की औषध-भेषज एवं आहार आदि से उचित सेवा करना। (10) स्वाध्याय-पठन-पाठन, परावर्तन, चिन्तन और धर्म कथा आदि करना । (11) ध्यान-आर्त एवं रौद्र ध्यान से बचकर धर्म व शुक्ल ध्यान में आत्मा को स्थिर करना । (12) व्युत्सर्ग-शरीर तथा उपधि आदि का व्युत्सर्ग करना, शरीर की हलन-चलन-क्रिया का त्याग करना । ये छ: आन्तरिक तप हैं। इनके द्वारा चित्त के विकारों का विशेष परिशोधन होता है। बहिरंग तप अन्तरंग तप की पूर्ति के लिए है। तप के लिए शास्त्र में कहा है-'भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिजइ।' उत्तरा. 30/6। प्रथम अध्ययन-टिप्पणी समाप्त ।। 888888888888888888
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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