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________________ प्रथम अध्ययन - टिप्पणी] [5 अर्थात् क्षमा, निर्लोभता, सरलता, कोमलभाव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य रूप धर्म एवं इससे बने शुद्ध विचार और निर्दोष आचार ही दुःख मुक्ति के उपाय हैं। इसी को यहाँ अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म कहा है। मंगलमुक्किट्ठ (उत्कृष्ट मंगल) प्रत्येक शास्त्र के आदि में मंगल-विधान की अति प्राचीन परम्परा है। मंगल का विविध अर्थों में प्रयोग किया गया है। सामान्य रूप से द्रव्य मंगल और भाव मंगल, इस प्रकार मंगल को दो भागों में बाँटा जा सकता है। दधि - अक्षत - नालिकेर आदि द्रव्य सचित्त - अचित्त और मिश्र रूप से द्रव्य मंगल विविध प्रकार का है, स्वस्तिक आदि आठ द्रव्य मंगल भी शास्त्र में प्रसिद्ध हैं।* 1. शालिन शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से मंगल शब्द मगि धातु से बनता है। ‘मंग्यते प्राप्यते हितमनेन इति मंगलम्-जिसके द्वारा हित की प्राप्ति हो, उसे मंगल कहते हैं। ‘मंग्यते स्वर्गोऽपवर्गो वा अनेन इति मंग: धर्मः, तं मंगलाति इति मंगलम् । अर्थात् जिसके द्वारा स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो, उस धर्म रूप मंग को प्राप्त कराने वाला (यानी धर्म की प्राप्ति कराने वाला) मंगल कहा गया है। विघ्न का निवारण करने वाला, जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'मन्यते ज्ञायते निश्रीयते विघ्नाभावो अनेन इति मंगलम् । आत्मा से संसार को अलग करने वाला, मुक्त करने वाला, जैसा कि कहा है-'मां गालयति अपनयति संसारादिति मंगलम्।' आत्मा के पाप मल को हटाने वाला, इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'मलं पापं गालयति स्फोटयतीति मंगलम् ।' 6. जिससे कहीं विघ्न न हो, उसे मंगल कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-'मा भूत गलो विघ्नोऽमारीति मंगलम्।' इत्यादि मंगल शब्द के अनेक अर्थ हैं। अन्य मंगल अमंगल भी हो सकते हैं, इसीलिए वे एकान्त मंगल नहीं कहे जा सकते । किन्तु धर्म सदा शाश्वत मंगल है। वह कभी अमंगल नहीं हो सकता। अत: संसार के समस्त द्रव्य मंगलों में भाव मंगल रूपी धर्म उत्कृष्ट मंगल है। धर्म इसलिए उत्कृष्ट मंगल है कि वह जन्म-मरण के बन्धनों को काटकर, पर स्वरूप आत्मा को स्व-स्वरूप की प्राप्ति कराने वाला है। अहिंसा संजमो तवो 1. अहिंसा-धर्म का पहला अंग अहिंसा है, हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है; प्राणातिपात - प्राणों के अतिपात को जहाँ हिंसा कहा गया है, वहाँ प्राणातिपात विरमण यानी प्राणों के अतिपात से विरति को अहिंसा कहा गया है। प्राणियों के प्राणों का वियोजन करना हिंसा है। "प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।" * मलयगिरि आवश्यक वृत्ति (हरिभद्र कृत) भाग प्रथम (पूर्वार्द्ध)
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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