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________________ 1001 [दशवैकालिक सूत्र तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं ।।50।। हिन्दी पद्यानुवाद फिर वैसा अशनादि साधुओं, के हित में है ग्राह्य नहीं। दात्री को वहाँ स्पष्ट कहे मुनि, मुझको ऐसा कल्प्य नहीं।। अन्वयार्थ-तं = वह । भत्तपाणं तु = आहार-पानी तो। संजायण = साधुओं के लिये । अकप्पियं = अग्राह्य । भवे = होता है, साधु । दितियं = देने वाली से । पडियाइक्खे = कहे कि । मे = मुझको। तारिसं = वैसा आहार लेना । ण कप्पड़ = नहीं कल्पता है। भावार्थ-वह आहार-पानी साधुओं के लिये अग्राह्य है, अत: साधु देने वाली से निषेध करते हुए कहे कि वैसा आहार उसको लेना कल्पता नहीं है। असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा, वा वणीमट्ठा पगडं इमं ।।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद अशन पान खादिम या स्वादिम, याचक के (भिक्षुक के) हित उपकल्पित। जाने या सुन ले मुनिवर तो, वह हो जाता है वर्जित ।। अन्वयार्थ-असणं = अशन । पाणगं = पानक । वा = अथवा । खाइमं वि = खाद्य भी। तहा = तथा । साइमं = स्वादिम । जं = इन पदार्थों में जो । जाणिज्ज = ऐसा जाने । वा = अथवा । सुणिज्जा = सुन ले कि । इमं = यह पदार्थ । वणीमट्ठा = वनीपक अर्थात् याचकों के लिये । पगडं = बनाया गया है। भावार्थ-जो अशन, पानक, खाद्य-मेवा, स्वाद्य-लवंगादि पदार्थ जो वनीपक अर्थात् याचकों के लिये बनाया गया है, ऐसा जाने अथवा सुने तो.......... । तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ।।52।। हिन्दी पद्यानुवाद फिर वह अशन-पान मुनि हित में, रह जाता है कल्प्य नहीं। ऐसी दात्री को मुनि बोले, मुझको है यह ग्राह्य नहीं ।। अन्वयार्थ-तं = वह । भत्तपाणं तु = आहार-पानी तो । संजयाण = साधुओं के लिये। अकप्पियं
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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