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________________ प्रथम वर्ग - प्रथम अध्ययन ] 13} कुमार भी, जहा मेहे तहा णिग्गए, = मेघ कुमार की तरह निकले। धम्म सोच्चा निसम्म = धर्मोपदेश सुनकर व धारण करके, जं नवरं देवाणुप्पिया ! = (वे बोले) हे देवानुप्रिय ! मैं यथावसर, अम्मापियरो आपुच्छामि = माता-पिता को पूछता हूँ (और), देवाणुप्पियाणं अंतिए पव्वयामि = देवानुप्रिय के समीप प्रव्रज्या लेता हूँ। एवं जहा मेहे = इस प्रकार मेघकुमार के समान, जाव अणगारे जाए = यावत् (वे गौतमकुमार) अणगार हो गये (एवं), इरियासमिए जाव इणमेव = ईर्या समिति आदि को एवं, णिग्गंढें पावयणं पुरओ = निर्ग्रन्थ प्रवचन को अपने आगे, काउं विहरइ = रखकर विचरते हैं। तए णं से गोयमे अणगारे = इसके बाद निश्चय ही गौतम अणगार ने, अण्णया कयाई = अन्य किसी दिन, अरहओ अरिट्ठणेमिस्स = अर्हन्त अरिष्टनेमि भगवान के, तहारूवाणं थेराणं = तथा-रूप (गुणसम्पन्न गीतार्थ) स्थविरों के, अंतिए सामाइयमाइयाई = पास सामायिक आदि, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ = 11 अंगों का अध्ययन किया। अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ = अध्ययन करके बहुत से उपवासादि द्वारा, जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ = यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे। तए णं अरहा अरिट्ठणेमी = तदनन्तर निश्चय से अर्हन्त अरिष्टनेमि ने, अण्णया कयाई बारवइओ नयरीओ = अन्यदा किसी दिन द्वारिकानगरी के, नंदणवणाओ उज्जाणाओ = नन्दनवन उद्यान से, पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता = प्रस्थान किया, प्रस्थान करके, बहिया जणवय-विहारं विहरइ = बाहर जनपद में विचरने लगे।।7।। भावार्थ-उस काल उस समय में अरिहन्त अरिष्टेनमि भगवान धर्मतीर्थ की आदि करने वाले यावत् विचरते हुए उस द्वारिकानगरी में पधारे । भगवान के समवसरण में चार प्रकार के देव आये। श्रीकृष्ण भी उन्हें वन्दन करने को निकले । गौतमकुमार भी ज्ञातासूत्र में वर्णित मेघकुमार की तरह प्रभु का धर्मोपदेश सुनने को निकले। धर्मोपदेश सनकर एवं उसे अपने हृदय पटल पर अंकित करके गौतमकमार प्रभ से बोले-“हे प्रभो! मैं अपने माता-पिता को पूछकर आप देवानुप्रिय के पास श्रमण दीक्षा अंगीकार करूँगा।" इस प्रकार ज्ञातासूत्र में वर्णित मेघ-कुमार के समान यावत् गौतमकुमार भी श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये । वे ईर्या समिति आदि गुणों वाले यावत् इसी वीतराग निर्ग्रन्थ शासन को अपने आगे रखकर भगवान की आज्ञाओं का पालन करते हुए विचरने लगे। तदनन्तर उन गौतम अणगार ने अन्य किसी दिन अरिहन्त अरिष्टनेमि भगवान के गुण सम्पन्न गीतार्थ स्थविरों के पास, सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से उपवास आदि तपश्चरण द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए एवं उसकी शुद्धि करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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