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________________ अष्टम वर्ग - दसवाँ अध्ययन ] 225 } एक दिन पिछली रात्रि के समय महासेन कृष्णा आर्या को धर्म-चिन्ता उत्पन्न हुई-“मेरा शरीर तपस्या से दुर्बल हो गया है तथापि अभी तक मुझ में उत्थान, बल, वीर्य आदि है । इसलिये कल सूर्योदय होते ही आर्या चन्दनबाला के पास जाकर उनसे आज्ञा लेकर संलेखना संथारा करूँ।” ___ तदनुसार दूसरे दिन सूर्योदय होने पर आर्या महासेन कृष्णा ने आर्या चन्दन बाला के पास जाकर वन्दन नमस्कार करके संथारे की आज्ञा मांगी। आज्ञा लेकर यावत् संलेखना संथारा किया और काल की इच्छा नहीं रखती हुई धर्मध्यान-शुक्लध्यान में तल्लीन रहते हुए विचरने लगी। उन महासेनकृष्णा आर्या ने आर्य चंदना आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । पूरे सत्रह वर्ष तक श्रमणी चारित्र-धर्म का पालन किया । अन्त में एक मास की संलेखना से आत्मा को भावित करते हुए साठ भक्त अनशन तप किया। इस तरह जिस लक्ष्य-प्राप्ति हेतु संयम ग्रहण किया था उसकी पूर्ण आराधना करके महासेन कृष्णा आर्या अन्तिम श्वास-उच्छ्वास में अपने सम्पूर्ण कर्मों को नष्टकर सिद्धबुद्ध और मुक्त हो गई। इन दसों रानियों के दीक्षापर्याय काल का वर्णन एक ही गाथा में किया गया है। इन में से प्रथम काली आर्या ने आठ वर्ष चारित्र पर्याय का पालन किया। दूसरी सुकाली आर्या ने नौवर्ष तक इस प्रकार क्रमश: एक एक रानी के चारित्र पर्याय में एक एक वर्ष की वृद्धि होती गई । अन्तिम दसवीं रानी महासेन कृष्णा आर्या ने 17 वर्ष तक दीक्षा पर्याय का पालन किया। ये सभी राजा श्रेणिक की रानियाँ थीं और कोणिक राजा की छोटी माताएँ थीं। । इइ दसममज्झयणं-दसवाँ अध्ययन समाप्त।। ।। इइ अट्ठमो वग्गो-अष्टम वर्ग समाप्त ।। एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि । अंतगडदसाणं अंगस्स एगो सुयक्खंधो अठवग्गा अट्ठसु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जंति। तत्थ पढमबितियवग्गे दस दस उद्देसगा, तइयवग्गे तेरस उद्देसगा, चउत्थपंचम-वग्गे दस उद्देसगा, छट्ठवग्गे सोलस उद्देसगा, सत्तमवग्गे तेरस उद्देसगा, अट्ठम वग्गे दस उद्देसगा। सेसं जहा नायाधम्मकहाणं। संस्कृत छाया- एवं खलु जम्बू! श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण यावत् (मुक्तिं) संप्राप्तेन अष्टमस्य अंगस्य अंतकृद्दशानाम् अयमर्थः प्रज्ञप्तः इति ब्रवीमि । अन्तकृद्दशानाम् अंगस्य एकः श्रुतस्कन्धो अष्ट-वर्गाः । अष्टसु चैव दिवसेषु उद्दिश्यन्ते । तत्र मूल
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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