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________________ षष्ठ वर्ग - पन्द्रहवाँ अध्ययन ] 167} कहा, जंचेव जाणामि तं चेव न = कि जिसको जानता हूँ उसको नहीं, जाणामि, जंचेव न जाणामि = जानता हूँ तथा जिसको नहीं जानता हूँ, तं चेव जाणामि = उसी को जानता हूँ। ___तं इच्छामि णं अम्मयाओ! = इसलिए मेरी इच्छा है कि मैं, तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए जाव = आपकी आज्ञा लेकर भगवान महावीर, पव्वइत्तए = प्रभु के पास प्रव्रजित हो जाऊँ । तए णं तं अइमुत्तं कुमारं = तब अतिमुक्त कुमार को, अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति = माता-पिता जब बहुत-सी युक्तिप्रयुक्तियों, बहूहिं आघवणाहिं = से समझाने में समर्थ नहीं हुए, जावतं इच्छामो ते जाया! = तब बोलेहे पुत्र! हम, एगदिवसमवि रायसिरिं = एक दिन के लिए तुम्हारी राज्यलक्ष्मी, पासेत्तए = देखना चाहते हैं। तए णं से अइमुत्ते कुमारे = तब अतिमुक्तकुमार, अम्मापिउवयण-मणुवत्तमाणे = माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करते, तुसिणीए संचिट्ठइ = हुए मौन रहे, अभिसेओ जहा महाबलस्स = तब महाबल के समान उनका राज्याभिषेक हुआ, णिक्खमणं जाव = और निष्क्रमण हुआ यावत्, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, = सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़े। बहूई वासाइं सामण्ण परियाओ = बहुत वर्षों तक चारित्र पाला, गुणरयणं जाव = गुण रत्न तप का आराधन किया, विपुले सिद्धे = यावत् विपुलाचल पर सिद्ध हुए।।7।। भावार्थ-अतिमुक्तकुमार-“हे माता-पिता ! मैं जानता हूँ कि जो जन्मा है उसको अवश्य मरना होगा, पर यह नहीं जानता कि कब, कहाँ, किस प्रकार और कितने दिन बाद मरना होगा। फिर मैं यह भी नहीं जानता कि जीव किन कर्मों के कारण नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनि में उत्पन्न होते हैं, पर इतना जानता हँ कि जीव अपने ही कर्मों के कारण नरक यावत देवयोनि में उत्पन्न होते हैं।" इस प्रकार निश्चय ही हे माता-पिता ! मैं जिसको जानता हूँ उसी को नहीं जानता और जिसको नहीं जानता उसी को जानता हूँ। अत: हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा होने पर यावत् प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ।' अतिमुक्त कुमार को माता-पिता जब बहुत-सी युक्ति-प्रयुक्तियों से समझाने में समर्थ नहीं हुए, तो बोले-“हे पुत्र ! हम एक दिन के लिए तुम्हारी राज्यलक्ष्मी की शोभा देखना चाहते हैं।' तब अतिमुक्त कुमार माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करके मौन रहे। तब महाबल के समान उनका राज्याभिषेक हुआ। फिर भगवान के पास दीक्षा लेकर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रमण-चारित्र का पालन किया । गुण रत्न तप का आराधन किया । यावत् विपुलाचल पर्वत पर सिद्ध हुए। ।। इइ पण्णरसममज्झयणं-पन्द्रहवाँ अध्ययन समाप्त ।।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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