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________________ { 138 [अंतगडदसासूत्र करयल एवं वयासी- = करके दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला-, नमोत्थु णं अरिहंताणं = नमस्कार हो अरिहंत भगवान यावत्, भगवंताणं जाव संपत्ताणं । = मोक्ष प्राप्त सिद्धों को नमस्कार हो । नमोत्थुणं समणस्स जाव = नमस्कार हो प्रभु महावीर को यावत्, संपाविउकामस्स । = मुक्ति पाने वाले श्रमणादिकों को। पुव्विं च णं मए भगवओ = मैंने पहले ही श्रमण भगवान, महावीरस्स अंतिए थूलए = महावीर के पास स्थूल, पाणाइवाए पच्चक्खाए = प्राणातिपात का आजीवन प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग, जावज्जीवाए 3 = किया है। इस प्रकार, थूलए मुसावाए, थूलए अदिण्णादाणे = स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान का भी त्याग किया है, सदारसंतोसे = स्वदार सन्तोष, इच्छा परिमाणे कए जावज्जीवाए = और इच्छा परिमाण रूप स्थल परिग्रह विरमण व्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किया है। तं इयाणिंपिणं तस्सेव अंतियं = अब भी मैं उन्हीं भगवान के पास, सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि = (साक्षी से) सर्वथा प्राणातिपात का, जावज्जीवाए = यावज्जीवन त्याग करता हूँ, सव्वं मुसावायं, सव्वं अदिण्णादाणं, सव्वं मेहुणं, सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि = तथा सम्पूर्ण मृषावाद, सर्व विध अदत्तादान, सर्वविध मैथुन एवं सम्पूर्ण परिग्रह का, जावज्जीवाए = आजीवन त्याग करता हूँ।, सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसल्लं = मैं सर्वथा क्रोध यावत् मिथ्या, दर्शनशल्य तक के समस्त (18) पापों, पच्चक्खामि जावज्जीवाए = का भी आजीवन त्याग करता हूँ।।11।। भावार्थ-उस समय उस क्रुद्ध मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आता हुआ देखकर वे सुदर्शन श्रमणोपासक मृत्यु की संभावना को जानकर भी किंचित् भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए। उनका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं हुआ। उन्होंने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया और मुख पर उत्तरासंग धारण किया। फिर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गये। बैठकर बाएँ घुटने को ऊँचा किया और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजुलि-पुट रक्खा। इसके बाद इस प्रकार बोले-“सर्वप्रथम मैं उन सभी अरिहन्त भगवन्तों को, जो भूतकाल में मोक्ष पधार गये हैं, एवं श्रमण भगवान महावीर स्वामी सहित उन सभी अरिहन्तों को, जो भविष्य में मोक्ष में पधारने वाले हैं, नमस्कार करता हूँ।" ___ “मैंने पहले श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का आजीवन त्याग (प्रत्याख्यान) किया, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान का त्याग किया, स्वदार संतोष और इच्छा परिमाण रूप स्थूल परिग्रह-विरमण व्रत जीवन भर के लिये ग्रहण किया, अब उन्हीं भगवान महावीर स्वामी की साक्षी से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और सम्पूर्ण-परिग्रह का सर्वथा आजीवन त्याग करता हूँ। क्रोध मान माया लोभ यावत् मिथ्या दर्शन शल्य तक 18 पापों का भी सर्वथा आजीवन त्याग करता हूँ।
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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