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________________ { 108 [अंतगडदसासूत्र ततः खलु अहं देवानुप्रिय! शिष्या-भिक्षां ददामि, प्रतीच्छन्तु खलु देवानुप्रिय! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखम् ! ततः खलु सा पद्मावती देवी उत्तरपौरस्त्यां दिग्भागम् अवक्राम्यति अवक्रम्य स्वयमेव आभरणालंकारम् अवमुंचति, अवमुच्य स्वयमेव पंचमौष्टिकं (लुञ्चनं) लोचं करोति कृत्वा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य अर्हन्तम् अरिष्टनेमिं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत्-आलिप्तो भदन्त ! यावत् धर्मं आख्यातुम् । अन्वायार्थ-तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमावई = तदनन्तर कृष्णवासुदेव ने पद्मावती, देवीं पट्टयं दुरुहई = देवी को पट्टे (पाटा) पर बैठाया, दुरुहित्ता अट्ठसएणं सोवण्णकलसेणं = बैठाकर एक सौ आठ सुवर्णकलशों से, जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ, = यावत् दीक्षा सम्बन्धी अभिषेक किया। अभिसिंचित्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेइ = अभिषेक करके सर्वविध (सब तरह के) अलंकारों से उन्हें विभूषित कराया । करित्ता, पुरिससहस्सवाहिणीं सिवियं दुरुहावेइ = इस प्रकार सजाकर हजार पुरुषों से उठाई, जाने वाली पालकी पर चढ़ाते हैं, दुरुहावित्ता बारवईए नयरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, = चढ़ाकर द्वारावती नगरी के मध्य मध्य भाग से निकले, णिग्गच्छित्ता जेणेव रेवयए पव्वए = निकलकर जहाँ रैवतक पर्वत है तथा, जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे = जहाँ सहस्राम्रवन नामक बगीचा है, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीयं ठवेइ = वहाँ पर आये। आकर शिविका को रख देते हैं, ठवेत्ता, पउमावई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ = रखने के बाद पद्मावती देवी उस शिविका से उतरती है। तए णं से कण्हे वासुदेवे = तदनन्तर कृष्ण वासुदेव, पउमावई देविं पुरओ कट्ट = पद्मावती देवी को आगे करके, जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी तेणेव = जहाँ भगवान अरिष्टनेमिनाथ थे वहाँ, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता = आये, आकर, अरहं अरिट्ठणेमिं = भगवान नेमिनाथ को तीन बार, आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता = आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता = वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी-एस णं भंते ! मम अग्गमहिसी = इस प्रकार बोले-हे पूज्य ! यह मेरी प्रधान रानी, पउमावई नामं देवी इट्ठा, कंता = पद्मावती नाम की देवी जो कि मुझे इष्ट कान्त, पिया, मणुण्णा, मणामा, अभिरामा = प्रिय, मनोज्ञ, मन के अनुकूल चलने वाली होने से सुन्दर है । जीवियऊसासा = यह जीवन के लिए श्वासोच्छ्वास के समान है, उंबरपुप्फविव हिययाणंदजणिया दुल्लहा, सवणयाए किमंग! पुण पासणयाए = हृदय को आनन्द देने वाली है, उदुम्बर पुष्प के समान जिसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो देखने की तो बात ही क्या ? तए णं अहं देवाणुप्पिया! = हे देवानुप्रिय! मैं उस प्रिय पत्नी की, सिस्सिणी भिक्खं दलयामि = शिष्यिणी रूप भिक्षा (आपको) देता हूँ, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणीभिक्खं = हे देवानुप्रिय ! आप शिष्यिणी रूप भिक्षा को ग्रहण करें । अहासुहं! = "जैसा सुख हो वैसा करो।" तएणंसा पउमावई देवी = तदनन्तर वह पद्मावती देवी, उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमड़
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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