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________________ पंचम वर्ग - प्रथम अध्ययन ] 109 } = ईशान कोण में जाती है तथा, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणालंकारं = वहाँ जाकर खुद ही आभूषण एवं अलंकारों को, ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव = उतारती है, उतार कर खुद ही, पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, = पाँच मुट्ठी का लोच करती है, करित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठणेमी = करके जहाँ भगवान अरिष्टनेमि थे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता = वहाँ आई, आकर, अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ नमसइ = भगवान नेमिनाथ को वंदना नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- = वन्दना नमस्कार करके बोली-, आलित्ते णं भंते ! जाव धम्ममाइक्खिउं = हे भगवन् ! यह लोक जन्म-मरणादि दु:खों से आलिप्त है अत: यावत् संयम-धर्म की दीक्षा दीजिए। भावार्थ-इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने पद्मावती देवी को पट्ट पर बिठाया और एक सौ आठ सुवर्णकलशों से उसे स्नान कराया यावत् दीक्षा सम्बन्धी अभिषेक किया। फिर सभी प्रकार के अलंकारों से उसे विभूषित करके हजार पुरुषों द्वारा उठायी जाने वाली शिविका(पालकी) में बिठाकर द्वारिका नगरी के मध्य से होते हुए निकले और जहाँ रैवतक पर्वत और सहस्राम्रवन उद्यान था वहाँ आकर पालकी नीचे रखी। तब पद्मावती देवी पालकी से नीचे उतरी। फिर कृष्ण वासुदेव पद्मावती महारानी को आगे करके भगवान नेमिनाथ के पास आये और भगवान नेमिनाथ को तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार बोले "हे भगवन् यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है। यह मेरे लिए इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, और मन के अनुकूल चलने वाली है अभिराम (सुन्दर) है। हे भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ्वास के समान मझे प्रिय है, मेरे हृदय को आनन्द देने वाली है। इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान सुनने के लिए भी दुर्लभ है; तब देखने की तो बात ही क्या है ? हे देवानुप्रिय! मैं ऐसी अपनी प्रिय पत्नी की भिक्षा शिष्या रूप में आपको देता हूँ। आप उसे स्वीकार करें।” कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सुनकर प्रभु बोले-हे देवानुप्रिय! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो। तब उस पद्मावती देवी ने ईशान-कोण में जाकर स्वयं अपने हाथों से अपने शरीर पर धारण किए हुए सभी आभूषण एवं अलंकार उतारे और स्वयं ही अपने केशों का पंचमौष्टिक लोच किया। फिर भगवान नेमिनाथ के पास आकर वंदना की। वंदन नमस्कार करके इस प्रकार बोली-“हे भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दु:ख रूपी आग में जल रहा है। अत: इन दुःखों से छुटकारा पाने और जलती हुई आग से बचने के लिए, मैं आपसे संयम-धर्म की दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूँ। अत: कृपा करके मुझे प्रव्रजित कीजिये यावत् चारित्र-धर्म सुनाइये।"
SR No.034358
Book TitleAntgada Dasanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size2 MB
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